२४०-२४१ सुधाकर-चन्द्रिका। ५२२ प्यारा। गाढ = कर पच = - सदा = हमेशा । पिरीतम =प्रियतम कठिन = कष्ट । करेई (करोति) = करता है। भूल = भूल (भ्रमति) = भूलता है। भूला भूला हुत्रा भ्रान्त । जिउ = जीव । देई = देदू = देता है (दत्ते) ॥ मूरि = मूलौ = मूलिका। सजीरोनि = सञ्जीवनी जिलानेवाली। श्रानि कदू = श्रान कर (श्रानीय)। मेला = मेल (मेलयति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । नौर = पानी। गरुर = गरुड = प्रसिद्ध पक्षी, विष्णु का वाहन । पाँख पर। जस = यथा = जैसे । झार = झारता है (झारयति)। अबिरित = अमृत । बरसा = बरस (बर्षति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । कौर = शुक ॥ यहाँ राजा तप से ऐसा सूख गया कि, विरहाग्नि से जल कर राख का ढेर हो गया । चुप माधे मूर्छित हो गया, जीव उस (पद्मावती) को दे दिया, (आप) विना जीव का हो गया। पिङ्गला और मुखम्णा नाडी को पकड कर (ऊपर खींच लिया दूसौ से) शून्य (ब्रह्माण्ड) मैं, अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रस्थान में समाधि लग गई (और ब्रह्म- कपाट में) ताली लग गई, अर्थात् जिस ब्रह्मछिद्र से प्राण ऊपर चढ गया वह छिद्र बंद हो गया । योगी लोग इसी तरह से ब्रह्माण्ड पर प्राण चढाते हैं । (इस ग्रन्थ का ३५१-३५२ पृष्ठ देखो।) जैसे समुद्र में एक जल-विन्दु का मेल हो जाय (तो फिर उस का पता नहीं लगता, उसी तरह (राजा रत्न-सेन पद्मावती के ध्यान में) लोप हो गया, ढूंढने से भी नहीं मिलता। जैसे (किसी) रंग में पानी मिला होता है (पर पानी को सूरत नहीं देख पडती) उसी तरह (राजा रत्न-सेन ) अपने को खो कर, वही (पद्मावती) हो कर रह गया है। शुक (हीरा-मणि) ने श्रा कर देखा कि, (राजा का तो) नाश हो गया, (देख कर) आँखों में रक्ताश्रु भर गई । (मन में कहने लगा कि हाय विरहौ) सदा (अपने) प्रियतम के लिये कष्ट करता है, वह प्रियतम नहीं भूलता पर श्राप भूला हुआ (उस के लिये) जीव देता है । सञ्जीवनी मूली ला कर और (उस के रस के साथ राजा के) मुख में पानी डाखा, जैसे गरुड अपने पंख को झारता है उसी तरह सुग्गे ने (राजा के मुख के ऊपर) अमृत की दृष्टि को ॥ २४ ॥ चउपाई। सुश्रा अहा जेहि आस सो पावा। बहुरी साँस पेट जिउ आवा ॥ देखेसि जागि सुबइ सिर नावा। पाति दौन्रु मुख बचन सुनावा ॥ 66
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