५०८ पदुमावति । २३ । राजा-गढ-छका-खंड । [२३५ - २३६ शुक ने (इतनी बात) कह कर (पद्मावती के आगे, गले से) खोल कर पत्नी को रख दौ, (पत्त्रौ) कूने से ऐसौ तप्त जान पडती है जैसे कि दीप । (दो फेरे) मोने के ताग जो गले में बाँधे गए थे (वे पत्त्री को श्राग से) जल कर कण्ठ में लाल काले ( कण्ठे ) हो गए, कवि की उत्प्रेक्षा है कि शुक के गले में लाल काले जो कण्ठे है वे पत्त्री को भाग से ताग के जल जाने से हैं। (शुक को) गर्म श्वास के साथ श्राग भभक उठौ जिस से बडे बडे वृक्ष जलने लगे, तहाँ (वृक्ष को) पत्तिों की क्या गिनती है। शुक (होरा-मणि) ने रो रो कर सब बात कही, रन को आँसुओं से मुख लाल हो गया। (शुक कहता है कि, पद्मावती) देख, कण्ठ जलने लगा तब ( इस पत्त्री को) गिरा दिया, मो (जिस के हाथ की पत्ती है वह) ऐसी विरहाग्नि के घेरे से कैसा जरता है (यह दूँ ही समझ)। (उस रत्न-सेन के ) सब हाड जल जल कर चूने हो गए, वहाँ रक्त के विना मांस की क्या बात है। उन्हों ने तेरे लिये दूस तरह से देह को भस्म कर दिया ; (सो यूँ हो कह कि) जलती मछली पानी में रह सकती है? तेरे लिये उस योगी ने देह को जला कर, राख कर दो, (पर) यूँ ऐसी निर्मोही है कि उस से बात तक न पूछौ ॥ २३५ ॥ - चउपाई। कहेसि सुआ मो सउँ सुनु बाता। चहउँ तो आजु मिलउँ जस राता ॥ पई सो मरमु न जाना भोरा। जानइ प्रीति जो मरि कइ जोरा ॥ हउँ जानति हउँ अब-हूँ काँचा। ना जेहि प्रीति रंग थिरु राँचा ॥ ना जेहि होइ भवर कर रंगू। ना जैहि दीपक होइ पतंगू॥ ना जेहि करा भिंगि कइ होई। ना जहि अबहि जिअइ मरि सोई॥ ना जेहि पेम अउटि प्रक भाउ । ना जेहि हिअइ माँह डर गाऊ ॥ ना जेहि भनउ मलइ गिरि बासा। ना जेहि रबि होइ चढेउ अकासा॥ दोहा। तेहि का कहिअ रहन खन जो हइ पौतम लागि । जहाँ सुना तहँ लेइ धुंसि कहा पानि का आगि ॥ २३६ ॥
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