५०६ पदुमावति । २३ । राजा-गठ-का-खंड [२३३ - २३५ (लिखति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । सबद् = सभो। दुख दुःख । रोद =रो कर (कदित्वा)। दऊँ = देखें = क्या जानें। जिउ = जीव। रहद = रहता है (तिष्ठति)। निसरद = निकलता है (निःसरति) । काह= किम् = क्या । रजाप्रसु = राजाज्ञा । होर होती है. (भवति) ॥ (शक पद्मावती से कह रहा है कि) ऐसा वसन्त निश्चय है कि तुम्ही खेलती हो, दूसरे के रुधिर का सेंदुर लगाती हो। तुम तो खेल कर घर चली गई पर उस (रत्न-सेन) का हाल भगवान-हो जानता है। (उस रत्न-सेन ने) कहा कि वारंवार ( पद्मावती के ध्यान से) कौन मरता रहे, एक-ही वार जल कर राख हो जाऊँ (तो अच्छा)। (ऐसा विचार कर) चिता रच कर, ज्यों-ही आग लगा कर जलना चाहा, त्यों हो महादेव और पार्वती (गौरी) ने खबर पाई (कि रत्न-सेन जल रहा है) श्रा कर, श्राग को बुझा कर, उस पथ को दिया, अर्थात् बताया, जिस में कि मरने के खेल का आगम है। (कवि कहता है कि) प्रेम-द्वार की राह उलटी है, वर्ग को चढे तो पाताल में गिरे। (राजा रत्न-सेन) अब उस ( पद्मावती) को आशा से, ( गढ मैं) ●म कर। ( उस राह को) लेना चाहता है; (उस राह में) आशा को पावे या नैराश्य हो कर मरे ॥ (रत्न-सेन ने) जो पत्तौ भेजी थी (उस में) सभी दुःख रो रो कर लिखा था, ( उस में यह भी लिखा था कि) देखें जीव रहता है कि जाता है (देखें) राजा ( गन्धर्व-सेन) को क्या प्राज्ञा होती है ॥ २३४ ॥ चउपाई। कहि कइ सुअइ छोडि दइ पाती। जानहुँ दौप छुअत तस तातौ ॥ गिअहिं जो बाँधे कंचन तागे। राते स्याव कंठ जरि लागे॥ अगिनि साँस सँग निसरी ताती। तरुअर जरहिँ तहाँ को पातौ ॥ रोइ रोइ सुअइ कही सब बाता। रकत क आँसुहिँ भा मुख राता॥ देखु कंठ जरि लागु सो गेरा। सो कस जरइ बिरह अस घेरा ॥ जरि जरि हाड भए सब चूना। तहाँ माँस को रकत बिहूना ॥ वेड तोहि लागि कया असि जारी। तपत मौन जल रहइ न पारी॥
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