५०४ पदुमावति । २३ । राजा-गढ-छका-खंड । [२३३ - २३४ तहाँ = तत्र । चकोर = एक प्रसिद्ध पक्षी, जो अङ्गार खाता है। कोकिला = एक प्रसिद्ध पक्षौ। तिन्ह = तिन्ह के= उन के । हिय= हृदय। मया = माया = दया। पई ठि पैठौ= प्रविष्ट हुई। नदून = नयन । भरि =भर= पूर्ण । श्राए= श्रावद (आयाति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का बहु-वचन । फिरि=फिर कर। कौन्ह = किया (अकरोत् ) । दौठि= दृष्टि = नजर ॥ उन वाणों से रोएँ रोएँ फूट गए, (उन के) मुखों से रुधिर के सोते के सोते कूटे। आँखों से रक्त की धारा (बह ) चली, कन्था भौंग कर लाल हो गया। प्रातःकाल का सूर्य (उसी रक्त-धारा से) बूड उठा और वन मंजीठ और टैंमू लाल हो गए। (उसौ रक्त-धारा से) वसन्त ऋतु में वनस्पतित्राँ लाल हो गई, और योगी यती मब लाल हो गए, अर्थात् उन के गेरुत्रा वस्त्र उमौ रक्तधारा से लाल हो गए हैं। ( उस धारा से) पृथ्वी जो भौंगो उसी से भूमि में गेरू हुए (कवि के मत से गेरू स्त्रीलिङ्ग है दूसौ से भद का प्रयोग किया है) और उस जगह जितने पक्षी ये सब लाल हो गए। (उसी रक्त-धारा से) अग्नि में सती की सब शरीर लाल हो गई, (उसो धारा को) छाया पड़ने से श्राकाश में मेघ लाल रङ्ग के हुए। (उमौ रक्त- धारा से) पहाड ऐसा भीग गया कि उस में ईगुर (को खानि) हो गई, (यह सब कबि को उत्प्रेक्षा है), ये सब तो हुए पर तुम्हारा एक रोत्रा भी न पसौजा ॥ उस स्थान में चकोर और कोकिला जो थे उन के हृदय में दया आई, (दया से) उन की आँखों में रुधिर भर श्राए पर तुम फिर कर ( उस की ओर) दृष्टि न को। चकोर और कोकिला की आँखें लाल लाल होती हैं वहाँ कवि को उत्प्रेक्षा है कि दया-ही के कारण रक्ताश्रु भर जाने से उन की आँखें लाल हो गई हैं ॥ २३३ ॥ चउपाई। अइस बसंत तुम्हइँ पइ खेलहु। रकत पराए सैंदुर मेलहु ॥ तुम्ह तउ खेलि मँदिर कहँ आई। ओहि क मरम पइ जानु गोसाई कहेसि मरइ को बारहिँ बारा। एकहि बार होउँ जरि छारा॥ सर रचि चहा आगि जो लाई। महादेवो गउरइ सुधि पाई ॥ आइ बुझाइ दोन्ह पँथ तहवाँ। मरन खेल कर आगम जहवाँ ।
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