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५०२ पदुमावति । २३ । राजा-गठ-छका-खंड । [ २३२-२३३ बान-वाण । मारा-मार रहा = स्थान = नावं ॥ मक। दरसन = दर्शन । लागि = लिये = वास्ते = लग्न । बिश्रोगी = वियोगी -विरही। अहा = था = श्रासीत् । सो = वह = सो। महादेत्रो = महादेव । मढ = मठ = मन्दिर । जोगी =योगी। बसंत वसन्त ऋतु । लेदू = ले कर (आलाय)। तहाँ = तत्र । सिधाई सिधावद (सेधति) का प्रथम-पुरुष, भूत काल, स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन । देश्रो = देव देवता। पूजि = पूज कर (आपूज्य )। पुनि = पुनः = फिर। श्री पहँ = उस के यहाँ । आई = श्रावद (आयाति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन ॥ दिमिटि = दृष्टि । तस = तथा = तैसा। मारेंड (मारयति) का भध्यम-पुरुष, भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन । घाइ = घाव = घात । - था = आसीत् । तहि = तिसौ= उसी। ठाउँ ठाव । दोसरि दूसरी द्वितीया । बार = वार= मर्तब । बोला = बोलह ( वदति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । पदुमावति पद्मावती। नाउँ= नाम = उसी समय हीरामणि (एक) आ गया, जानौँ प्यास से मरता छाँह पा जाय (ऐसी दशा पद्मावती को हुई ) । (कहने लगी कि) हे शक अच्छा किया जो तुम्ह ने फेरा कौ, मैं (अपने ) प्रियतम के कष्ट को नहीं जानी (कि क्या उस पर बीत रही है)। (मेरे लिये उस के मिलने कौ) राह में जानों विषम पहाड पडा हुआ है, (तौ भौ) हृदय में मिला ( वह किसी तरह से ) अलग नहीं होता । प्यासा पानी का मर्म जानता है, जो पानी में है उस के लिये का (पानी को) श्राशा। (शुक ने उत्तर दिया कि) रानी इस बात को क्या पूछती हो; (भगवान करे कि) प्रेम का अनुरागी कोई न हो । वह (रत्न-सेन ) विरही योगी तुम्हारे दर्शन के लिये महादेव के मन्दिर में (ठहरा) था। तुम वसन्त ऋतु (सखिओं) को ले कर वहाँ पधारी और देवता पूज कर फिर उस के पास आई ॥ तुम ने ऐसा दृष्टि-वाण मारा कि ( उस ) घाव से (वह बेचारा) उसी जगह रह गया, ( एक वार ) पद्मावती (ऐसा तुमारा) नाम ले कर (मूर्छित हो गया फिर) दूसरौ वार न बोला ॥ २३२ ॥ त्रउपाई। रोहिँ रोज बान वेइ फूटे। सोतहिँ सोत रुहिर मुख छूटे ॥ नइनन्ह चलो रकत कई धारा। कंथा भौजि भएउ रतनारा ॥