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२३० - २३१] सुधाकर-चन्द्रिका । ४८८ (रत्न-सेन कहता है कि हाय) मेरो प्रेम-पत्त्री प्यारे (पद्मावती) के हाथ में खाली गई, अर्थात् पत्नी के साथ मेरा जीव न ही गया, (इसी पछतावे से ) अब अच्छी तरह से मरता हूँ, यदि पत्त्री के साथ जीव जाता तो भेंट होती और (रो) रो कर मेरे दुःख को सुनाता ॥ २३ ॥ चउपाई। कंचन तार बाँधि गि पाती। लेइ गा सुत्रा जहाँ धनि राती ॥ जइसइ कवल सुरुज का आसा। नौर कंठ लहि मरद पिनासा ॥ बिसरा भोगु सेज सुख बाखू । जहाँ भवर सब तहाँ हुलालू ॥ तब लगि धौर सुना नहिँ पौज। सुनतहि घरौ रहइ नहिं जोऊ ॥ तब लगि सुख हिए पेम न जामा। जहाँ पेम गा सुख बिसरामा ॥ अगर चंदन सुठि दहइ सरीरू। अउ भा अगिनि कया कर चोरू॥ कथा कहानी सुनि सुठि जरा। जानहुँ घिउ बइसंदर परा। दोहा। बिरह न आपु सँभारइ मइल चौर सिर रूख। पिउ पिउ करत रात दिन पपिहा भइ मुख सूख ॥ २३१ ॥ कंचन = काञ्चन= सुवर्ण । तार = तागा = सूत्र । बाँधि = बाँध कर (बन्धयित्वा)। गि = ग्रीवा = गला। पातौ = पत्नौ। लेदू =ले कर (श्रालाय)। गा= गया (अगात् )। सुत्रा = शुक= सुग्गा। जहाँ '= यत्र। धनि धन्या, पद्मावती। राती = रता = रत्न-सेन के ध्यान में मना। जदूसदू यथा = जैसे। कवल कमल । सुरुज = सूर्य। कद = को। आसा = आशा = उम्मीद। नौर =जल। कंठ = कण्ठ । लहि = लब्धा=पा कर। मरदू = मरता है (मरति)। पित्रासा = पिपासा = प्यास । बिसरा = बिसर (विस्मरति) का प्रथम- पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन। भोगु= भोग = सुखविलास । सेज = शय्या बासू = वास । भवर =भ्रमर = भाँरा । सब = सर्व। तहाँ हुलासू= उल्लास। तब लगि तब तक । धौर = धैर्य ढाढस। सुना= सनदू (श्टणोति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । पोऊ = प्रिय । सुनतहि = सुनते-ही (श्टण्वन् हि)। रहदू = रहता है (तिष्ठति)। जोऊ = जीव । हिy = हृदय में। पेम = - पलँग । =तत्र -