२२८-२२६] सुधाकर-चन्द्रिका। ४६५ । ( पवन ) और न पैर है, किस तरह से मिलूँ, किस के शरण में जाऊँ । ( पद्मावती के ) स्मरण करते ही आँखों में रक्त भर कर चूने लगे, रो कर (रत्न-सेन ने) मध्यस्थ हौरामणि शुक को पुकारा। रक्त को बाँस टूट टूट कर जो पडौ हैं, उन्हीं से अब तक बौर-बहटी लाल हैं । उसो अश्रु रक्त से लिख कर चिट्ठी को दिया, सुग्गे ने जो (उस रक्ताक्षर को चौठी) लौ उसी से उस को चाँच लाल हो गई । (रत्न-सेन ने उस चौठौ को शुक के) गले में बाँध दिया, (बाँधने से) गला जल गया (दूसौ से) कण्ठ में लाल धारी का कंठा पड़ गया। (चौठी में यही लिखा था कि,) विरह का जला हुआ नष्ट हो कर कहाँ जाय ॥ आँख को (आँस को) स्याही, और बरौनी की कलम से, (और भी बहुत विरह की बातें जो) कहने योग्य नहीं (मब) रो रो कर लिखा। अक्षर जलते हैं, कोई (जल जाने के डर से जिस पत्री को) पकडता नहीं, (उस को) सुग्गे के हाथ में दिया ॥ २२८ ॥ चउपाई। अउ मुख सउँ बच कहेसु परेवा । पहिलइ मोरि बहुत कइ सेवा ॥ पुनि सवँराइ कहेसु अस दूजे । जो बलि दौर देवोतन्ह पूजे ॥ सो अबहूँ तइसइ बलि लागा। कब लगि कया सून मढ जागा ॥ भलेहि ईस तुम्ह-हूँ बलि दीन्हा। जहँ तुम्ह भाउ तहाँ बलि कौन्हा ॥ जउँ तुम्ह मया कौन्ह पगु ढारा। दिसिटि देखाइ बान-बिख मारा ॥ जो अस जा कर आसा-मुखौ। दुख मँह अइस न मारइ दुखौ ॥ नइन भिखारि न मानहिँ सौखा। अगुमन दउरि लीन्ह पइ भौखा ॥ दोहा। नइनहिँ नइन जो बेधि गइ नहिं निकसहि वेइ बान। हिअइ जो आखर तुम्ह लिखे ते सुठि घटहिं परान ॥ २२६॥ अपि च = सउँ मुख = मुँह से। बच= वचः = वचन । कहेसु = कहना (कथनीयम् ) । परेवा = पारावत = पक्षौ। पहिलदू = प्रथम = पहले ही। मोरि = मेरी। बहुत अतिशय । कद = कर । सेवा = खुशामद = विनति = विनय । और। मुख
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