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४८४ पदुमावती । २३ । राजा-गठ-छका-खंड । [२२२ - २२३ - . तरह योगी लोग (शौघ्र ) गढ में सेंध दिया चाहते हैं। वही सच्चा चोर है जो कि छिपा रहता है, (यदि चोर) प्रगट हो जाय तो जीव न बचे। गढ की हर एक पौरी पर दरवाजे बंद हो गए, और राजा से पुकार की गई। (कि) योगी गढ केक कर एक? हुए हैं, नहीं जानते कि किस देश में खेला चाहते हैं । राजा की आज्ञा हुई कि देखो कौन ऐसे ढौठे भिखारी हैं, दो आदमी दूत ऐसे जायें और उन्हें बरज श्रावै ॥ २२२ ॥ चउपाई। उतरि बसिठ दुइ भाइ जोहारे। कइ तुम्ह जोगी कइ बनिजारे भएउ रजाप्रसु आगइ खेलहु । गढ तर छाँडि अनत होइ मेलहु ॥ अस लागेहु केहि के सिखि दौन्हे। आपहु मरइ हाथ जिउ लौन्हे ॥ इहाँ इंदर अस राजा तपा। जउँ-हि रिसाइ सूर डरि छपा ॥ हहु बनिजार तो बनिज बैसाहहु। भरि बइपार लेहु जो चाहहु ॥ जोगी हहु तो जुगुति सउँ माँगहु। भुगुति लेहु लेइ मारग लागहु ॥ इहाँ देोता अस गफ हारी। तुम्ह पतंग को आहि भिखारी ॥ दोहा। 1 तुम्ह जोगी बइरागी कहत न मानहु को हु। लेहु माँगि किछु भिच्छा खेलि अनत कहँ होहु ॥ २२३॥ उतरि उत्तौर्य = उतर कर । बमिठ = बसोठ = वसिष्ठ, के ऐसा दूत । दुद् = द्वौ = दो। श्रादू = एत्य = पा कर । जोहारेजोहार किए = प्रणाम किए (हे जीव-हार ऐसा कह कर प्रणाम किए)। कई = कि। जोगी= योगी। कद् = कि = वा । बनिजारे = वणिज बनिए। भण्उ = बभूव = हुआ। रजाप्रसु = राजादेश = राजाज्ञा। आग = श्रागे = अग्रे। खेल = खेलो खेलद् (खेलति) का, मध्यम-पुरुष, लोट लकार, बहु-वचन। गढ = दुर्ग किला। तर = तल । छाँडि = ( सञ्छुय) छोड कर। अनत = अन्यत्र । होद = हो कर (भूत्वा)। मेलहु = मिलो = एकट्ठाँ हो ( मिल सङ्गमे से )। श्रम = एतादृश ऐमा। लागेहु = लगे = लग्न हुए। कहि के = किम के। सिख = शिक्षा। दीन्हे = देने से (दा दाने से )। श्राप = पाए। मरद = मरने के लिये = मरणाय। हाथ = हस्त । गाढ=