२१६ - २२०] सुधाकर-घन्द्रिका। ४७७ = पन्थाः
तक
। '=खण्ड= महल। सात= सप्त। चढाउ= जीव । उपदेमो = उपदेशौ = उपदेश-योग्य । लागि लग कर (लगित्वा)। पंथ राह। भूले = भूलद् (भ्रमति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का बहु-वचन । परदेसी - परदेशी = परदेश के लोग। जउँ= यदि। लहि = लगि अवधि। चोर = चौर। मैंधि = सन्धि । देई =देव (दत्ते) = देता है। केर = का। मूमद मूसने (मुष धातु से )। पेई = पाई = पाता है ( प्राप्नोति)। चढदू = चढे (उच्चलेत् ) । त= तदा = तर्हि = तो। बार = वार = द्वार । वदी =खुन्दन । परदु = पतेत् = पडे । सोस = शौर्ष = शिर । सउँ= से = तें । मूंदी = मुद्रित ॥ सो = मो= वह, यहाँ उस । तोहि सिंघलगढ = सिंहल-गाढ सिंहल का किला । हदू = है (अस्ति)। खंड (उच्चलन) = चढाव। फिरद लौटता है (परावर्त्तते, निवर्तते)। कोई = कोऽपि । जित = जीवन् = जीता। जिउ सरग= खर्ग। दद = दत्त्वा = दे कर । पाद =पेर ॥ (रत्न-सेन के ) रोते (आँस से) संसार बूड उठा, तब महादेव दयालु हुए। (और) बोले कि बहुत रो चुका अब ठून रो, अब ईश्वर (तेरे) दरिद्र के खोने पर हुआ। जो दुःख सहता है उसे (पौके से) सुख होता है, दुःख किए विना ( कोई ) सुख से शिवलोक में नहीं जाता। अब दूं सिद्ध हो गया, ते ने पवित्रता को पाया, पारीर- दर्पण की काई छूट गई। हे (रत्न-सेन) अब (एक) उपदेश-योग्य बात कहता हूँ, (जिस के ) लिये परदेशी (लोग) राह में भटके हैं। जब तक चोर सैंध नहीं देता तब तक राजा को नहीं मूसने पाता। यदि (वह चोर ) चढे तो दरवाजे-ही पर खूदा जाय ; और (गिर) पडे तो सेंध-ही में शिर गाडा (मूंदा ) जाय ॥ तुझ से कहता हूँ, उस सिंहलगढ में मात महल को चढाई है, मो स्वर्ग को राह में पाव दे कर, कोई जीता जीव नहीं लौटता है ॥ २१६ ॥ पाउ चउपाई। गढ तस बाँक जइस तोरि काया। परखि देखु यह ओहि कइ छाया ॥ पाइअ नाहिँ जूझि हठ कौन्हे। जे पावा तेइँ आपुहिँ चौन्हे ॥ नउ पउरी तेहि गढ मॅझिारा। अउ तहँ फिरहिँ पाँच कोटवारा॥ दसउँ दुबार गुपुत प्रक नाँको । अगम चढाउ बाट सुठि बाँकी ॥