२१८] सुधाकर-चन्द्रिका। ४७५ तैसे। एक-वचन। । पानी। पाहन पाषाण = पत्थल। - = खोअर (स्थति ) का उत्तम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । टूटहि - त्रुश्यन्ति = टूटते हैं। रतन = रत्न = जवाहिर। रतन = रत्न-सेन (राजा)। तस = तथा = रोत्रा =रोअद् (रोदिति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का गगन = आकाश। मेघ: बादल = मेह। जम = जैसे = यथा। बरसहि = वर्षन्ति = बरसते हैं। भली= वरम् = भद्रम् = अच्छी तरह से । पुडमी = पृथिवी । पूरि= पूर हो कर आपूर्य। मलिल जल = पानी। हो = भूत्वा = हो कर। चली = चल (चलति) का प्रथम-पुरुष, स्त्रीलिङ्ग, भूत-काल का एक-वचन । सापर=सागर =जलस्थान। उपटि उत्पव्य = भर कर। सिखर शिखर = चोटी। गे गए। पाटी= पट =भर । जरद चलति जरता है। पानि पानीय हिय= हृदय । फाटौ = फटद् (स्फुटति) का भूत-काल, फाटा पुंलिङ्ग के स्थान में काटौ। पउन = पवन = वायु= हवा । सब = सर्व । गरहौं =गरहि = गरदू (गरति) का बहु-बचन = गलते हैं। केहू = केऽपि = कोई। जनि= मत । परहौं = परद् (पतति) का बहु-वचन, यहाँ परहि जिउ = जीव । गरदु = गरति= गलता है। रकत = रक्त = लोह। माँसु = माँस मांस । रो रोम =रोत्राँ। रोहि = रुदन्ति = रोते हैं। सोत मोत = सूत सूत । भरि =भृत्वा = भर कर । आँसु = अश्रु= श्राँस ॥ उस क्षण रत्नसेन व्याकुल हो गया, पुक्का फार, उच्च खर निकाल निकाल कर, (महादेव का) पैर पकड कर, (गिर ) पडा । (रो कर कहने लगा कि) यदि ऐसा हो गले में प्रेम का फन्दा पडना (डालना) था तो माता-पिता ने पैदा (जनमा) कर क्यों पाला। पृथ्वी और स्वर्ग दोनों मिले हुए थे, क्यों (ईश्वर ने ) अलग कर वियोग कर दिया। (हाय ) जो रत्नाभरणरूप पदार्थ हाथ में था (उसे ) मैं ने खो दिया अर्थात् श्राई हुई पद्मावती हाथ से निकल गई। (इस प्रकार से) रत्नसेन ने रोया, (आँसू के जल टपकते हैं जैसे) रत्न (मोती) टूट टूट कर गिरते हाँ। (वा) श्राकाश से जैसे मेघ बरसते हैं (जिस से ) अच्छी तरह पृथ्वी भर गई (पौके भरने के बाद जानाँ वही पृथ्वी) पानी हो कर बह चली । (सब) स्थल भर कर (पहाडौँ) को चोटिआँ डूब गई; (रत्नसेन के श्रावँ के) पानी जरते हैं, जिन के लगने से पत्थल के कलेजे (हृदय) फट गए। हवा पानी हो हो कर गलते हैं, (भगवान् करे कि) प्रेम-फन्द में कोई न पडे ॥ ७
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