सुधाकर-चन्द्रिका। चउपाई। प्रहि बिधि चौन्हहु करहु गित्रानू। जस पुरान मह लिखा बखानू ॥ जौउ नाहि पइ जिअइ गोसाई कर नाहौँ पर करइ सबाई ॥ जौभ नाहिँ पइ सब किछु बोला। तन नाहौँ जो डोलाउ सो डोला ॥ सवन नाहिँ पइ सब किछु सुना। हिअ नाहौँ गुननाँ सब गुना ॥ नयन नाहिँ पइ सब किछु देखा। कवन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥ ना कोइ होइ हइ ओहि के रूपा। ना ओहि अस कोइ अइस अनूपा॥ ना ओहि ठाउँ न ओहि बिनु ठाऊँ। रूप रेख बिनु निरमर नाऊँ ॥ दोहा। ना वह मिला न बेहरा अइस रहा भरि पूरि । दिसिटिवंत कह नौअरे अंध मुरुख कह दूरि ॥८॥ गिानू = ज्ञान । सबाई '= सब को। डोलाउ = डोलाता है = चलाता है। स्रवन = श्रवण - - कान। जादु विसेखा = विशेष रूप से वर्णन किया जाय। वेहरा=अलग । दिसिटिवंत = दृष्टिवन्त । इस प्रकार से चौन्हो और ज्ञान करो, जैसा कि ( उस ईश्वर का) पुराण में वखान (वर्णन ) लिखा है। जीव नहीं है, पर वह गोसाई (गो-खामी = सब इन्द्रियों का पति) जीता है। उस को कर (हाथ ) नहीं है, पर सब को करता है ॥ “उस को” का सर्वत्र योजना करना चाहिए। जीभ नहीं है, पर सब कुछ बोलता है। तन (तनु = शरीर) नहीं है, पर जो डोलाता है वही डोलता है। श्रवण नहीं है, पर सब कुछ सुनता है। हिअ (हृदय) नहीं है, पर सब गुनना (विचार) को गुना (विचारा) करता है। नयन (नेत्र आँख) नहीं है, पर सब कुछ देखता है। किस प्रकार से ऐसे का विशेष रूप से वर्णन किया जाय ॥ उस के रूप के ऐसा न कोई होता है और न कोई है। और न उस के ऐसा कोई है और न कोई ऐसा अनुपम है। यहाँ देहलो दोप न्याय से यदि "कोई” का दोनों ओर अन्वय किया जाय तो ग्रन्थ लग जाता है! अथवा “अदूस" के स्थान में “हो” पाठ किया जाय, तो उस के ऐसा कोई अनुपम नहीं होता है, यह ठीक अर्थ बैठ जाता है। ऐमा न करने से “स” और “अदूस" -
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