२१५] सुधाकर-चन्द्रिका । ४६८ काह= कया। संस्मृत्य स्मरण कर। मुअ = मरने पर। श्रम = एतादृश = ऐसा। स्वाहा = लाभ = प्राप्ति। नदून = नयन अाँख। जो = यत् = जो। देखसि = पश्यसि = देखते हो। पूछसि पृच्छसि = पूछते हो। काहा = कथम् = किम् = क्या । अबहिँ दूदानौं हि = अभी। ताहि = तस्याः = तिसे । जिउ = जीव । देव = देने = दातुम् । पावा =प्राप्नोत् = पाया। तोहि = तेरे। अमि = सदृश -तुल्य । ठाढि = स्थित्वा = खडी हो कर । मनावा = सममानयत् = मनाती है। जउँ = यदि = जो। दहउँ = दास्यामि = दूंगा। कद् = को। आसा = आशा= उम्मेद। जनउँ= जानउँ = जाने = जानता हूँ। किम् होइहि = होइहि होगा। कबिलास = कैलास, यहाँ स्वर्ग । हउँ अहम् = मै । ले ले कर = बालाय। करउँ = करवाणि करूँ। लागि जहि = जिस के लिये = यदर्थ । मरउ = मरता हूँ = मरामि । बार = द्वार । बारउँ= वलि दूं। सिर = शिरः । उतारि- अवतार्य = उतार कर । नोछाोरि = नेवछावर कर = न्यवच्छाद्य । डारउँ = डालें (दारये )। चाह = इच्छा। कहदू = कथयेत् = कहे । श्राई = श्रायाय = श्रा कर । दुअउ = द्वयोहि = दोनों में । जगत = जगत् संसार । देउँ = दद्याम् = देऊँ । बडाई = वरत्व = वरता = श्रेष्ठता = वृद्धत्व ॥ किकु = किञ्चित् = कुछ। श्रास = आशा। करेउ = करोमि = करता हूँ। निरास = नैराश्य = निराशा। पौतम = प्रियतमा = सब से प्यारी। कह =को ॥ (रत्नसेन ने उस अप्परा से कहा कि) अप्सरा तेरा ललित वर्ण अच्छा हो (तो क्या ), मुझे दूसरे से बात करना नहीं भाता । मुझे उस के स्मरण करते (और उस के लिये ) मरने पर (तयार) होते-हो ऐसा लाभ हुश्रा (जो कि तेरा दर्शन हुश्रा), (सोह्) जिसे आँख से देखती है उसे क्यों पूछती है। अभी उस के लिये जीव देने नहीं पाया। (इतने-हौ में) तेरे ऐसौ अप्सरा खडी हो कर मनाने लगी। यदि उस को आशा से जीव देऊँगा तो नहीं जानता कि स्वर्ग में क्या होगा। मैं वर्ग ले कर क्या करूँ, जिस के लिये मैं मर रहा हूँ मेरे लिये वही स्वर्ग है। (जब वह ऐसी अनुपमा है तब) उस के द्वार क्या जीव को वलिदान न करूं और शिर उतार (काट) कर उस पर नेवछावर कर न (भूमि पर) डारूँ। जो श्रा कर मुझ से उस की इच्छा को कहे अर्थात् वह क्या मुझ से चाहती है इस बात को मुझ से कहे, उस को दोनों इस लोक और परलोक में मैं बडाई दूँ उसे मेरी कुछ आशा नहीं (किन्तु ) मैं उस की आशा करता हूँ। उस के नैराश्य -
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