६] सुधाकर-चन्द्रिका। - =ण। परबत ढाहि देखु सब लोगू। चाँटहि करइ हसति सरि जोगू॥ बजरहि तिन कइ मारि उडाई। तिनहि बजर का देइ बडाई ॥ काहुहि भोग भुगुति सुख सारा। काहुहि भौख भवन-दुख मारा॥ ता कर कीन्ह न जानइ कोई। करइ सोइ मन चित्त न होई ॥ दोहा। सबइ नास्ति वह असथिर अइस साज जेहि केरि। प्रक साजइ अउ भाँजइ चहइ सवाँरइ फेरि ॥६॥ सरवदा = सर्वद = सब कुछ देने-वाला। छतरि = क्षत्री = जिस को क्षत्र अर्थात् पर- परित्राण (दूसरे का पालन करना ) शक्ति है। अछतरि= बिना क्षत्र का कर के ।* निछतरहि = विना क्षत्र-वाले को। मरिबरि= बराबरी। बजरहि = वज्र को। तिन सारा = रचना किया = बनाया। भवन-दुख = घर का दुःख। असथिर = स्थिर। भाँजदू भग्न करता है तोडता है। सवार = रचना करे। सोई बडे राजा का अर्थात् ईश्वर का पहले वर्णन करता हूँ। सृष्टि के आदि से अन्त तक जिस का राज शोभित है ॥ सब कुछ देने वाला वह ईश्वर सदा राज करता है। और जिम को चाहे तिस को राज देता है। जिस को क्षत्र है उसे विना क्षत्र का कर, विना क्षत्र-वाले को ( उसी क्षत्र से ) छावता है। दूसरा कोई नहीं है जो उस को बराबरी को पावे अर्थात् बराबरी कर सके || लोग देखते हैं कि पर्वत को ढहा कर, एक चौंटे को हाथी के समता योग्य करता है। वज्र को हण कर मार कर उडा देता है। हण को वज्र कर बडाई देता है अर्थात् हण को श्रेष्ठ बना देता है। किसी के लिये भोग भोजन और सुख रचना किया। किसी को भिक्षा और घर के दुःख से मार डाला ॥ तिस ईश्वर का किया कोई नहीं जानता। जो बात मन और चित्त में नहीं होती वही करता है ( मन और चित्त के लिये ६५ वें दोहे को टौका देखो) ॥ संसार में सब बस्तु कुछ नहीं है, अर्थात् सब चञ्चल हैं, उत्पन्न हुई, और नाश हुई, परन्तु वह ईश्वर सर्वदा स्थिर है। ऐसा जिस ईश्वर का सब साज है, वह एक को माजता है, और दूसरे को बिगाडता है, और चाहे, तो फिर (बिगडे हुए को) रच डाले, अर्थात् जैसा का तैसा बना डाले ॥ ६ ॥
- क्षत्री के स्थान में छत्रौ अर्थात् जिस के शिर पर छत्र (छाता) हो, ऐसा कर देने से, यहाँ दूसरा अर्थ भी हो जाता है।
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