२०६ - २१०] सुधाकर-चन्द्रिका । ४५७ गया =
श्रादू = आ कर (एत्य )। पिरौतम = प्रियतम = सब से प्यारा। फिरि = लौट । अगात् । मिला मिलदू (मिलति) का भूत-काल । तन = तनु = देह । घालि कदू = घाल कर = नाश कर = गला कर। जारि= जला कर (प्रज्वाल्य ) । करउँ = करद (करोति ) का पुंलिङ्ग उत्तम-पुरुष का एक-वचन । भसमंत = भस्म = राख । (देव-वचन सुन कर राजा कहने लगा कि जब बात बिगड गई तो) पौछे से मैं क्या किसी को दोष देऊ; जो शरीर को संगो (पद्मावती) है उस को भी तो मोह नहीं है (मोह होता तो क्यों मुझे छोड कर चली जाती)। (सो) प्यारा वियोगी मित्र (पद्मावती) ने (मुझे) मार डाला; साथ न लगा कर, अर्थात् साथ में न हो कर, वह श्राप (मेरे पास से ) चला गया। मैं ने क्या किया जो देह को पोसा ; (सब) दोष मेरे ही में हैं आप (वह पद्मावती) निर्दोष है। (वह) गौरी-रूपा (पद्मावती) वसन्त में फाग खेल कर चली गई ; श्राग दे कर मेरो शरीर होरौ को लगा दिया, अर्थात् फूंक दिया। अब ऐसौ (होलौ कौ) राख को किस के शिर में लगाऊँ ? (कोई हिस् संसार में नहीं देख पडता सो अब ) तैसा फाग खेलता हूँ कि (स्वयं मैं ) राख हो जाऊँ। मैं ने राज्य छोड कर क्यों (निराहार) तप को किया; (जिस से ) श्राहार गया, अर्थात् भोजन विना मर गया और काम भी पूरा न हुा । योगौ, यतौ, हो कर भौ (पद्मावती को) न पाया तो अब चिता पर चढता हूँ और जैसे पति-व्रता सती स्त्री (पति-वियोग से) जरती है; उमौ प्रकार मैं प्रिया- वियोग से जरता हूँ। (योगी, यति के लिये ३० ३ दोहे को टौका देखो)। प्रियतम ( पद्मावती) श्रा कर लौट गया; वसन्त में भी पा कर न मिला। (दूस लिये) अब देह को गला कर, और होरी के ऐसा जला कर भस्म कर देता हूँ॥ २० ॥ - घउपाई। कानू साजा। सकल पंखि जइस सर तस सर साजि जरइ चह राजा ॥ देोता आइ तुलाने। दहुँ कस होछ देओ-असथाने ॥ बिरह अगिनि बजरागि असूझा। जरह हर न बुझाए तेहि के जरत जो उठइ बजागौ। तीनउँ लोक जरिहि तेहि लागी ॥ बूझा॥ 58