२०८-२०६] सुधाकर-चन्द्रिका । ४५५ अब = .. .. अधुना = दूदानीम् । मरउँ = मरद (मरति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन । निसासौ = निःश्वासो -बेदम का। हिश्रद = हृदय में। आवद् = श्रायाति पाती है। साँस = श्वास । रोगिना=रोगी। चाल = चलावे (चालयेत् )। बदहि = वैद्य को । जहाँ - यत्र । उपास = उपवास फाँका ॥ (रत्न-सेन के कटु-वचन कहने पर) देव ने कहा कि अरे पगला राजा सुन ; देव को तो पहले ही बिजुरौ ने मार दिया । जो पहले ही अपने शिर के बल गिर पडता है वह क्या किसी को धरहरिया करे। (सुन) राजा (गन्धर्व-सेन ) की कन्या पद्मावती ने सखिओं के साथ मण्डप में श्रा कर, (अपने मुह को) खोला। (उस बेला में सखिओं के मुख के संग उस के मुख की ऐसौ शोभा हुई) जैसे चाँद के साथ सब तारा हाँ; ( सो उस ) उजेले को देख कर मैं भ्रम में पड गया। विद्युत् की नाई (उस के ) दाँत चमकते हैं, अर्थात् चमकते थे; आँखों के चक्र (जाना ) यम-कर्तरी को फेरते थे । मैं उसी नयनचक्र-रूपी दीप में फतिंगा हो कर गिर पडा ; यमराज ने (मेरे) जीव को निकाल कर, स्वर्ग में रख दिया। (मैं बेहोश हो गया) फिर नहीं जानता कि (वह पद्मावती) क्या हो गई; कैलास में चली गई कि कहाँ सरक गई (मो मैं नहीं कह सकता) ॥ अब मैं (स्वयं उस के लिये) बेदम का हो कर मर रहा हूँ; हृदय में माँस नहीं आती है; (सो हे राजा) जहाँ वैद्य ही उपवास कर रहा है वहाँ रोगी की कौन ( बात ) चलावे, अर्थात् मैं देवता हो कर जब मर रहा हूँ तब तुम्हारी सहायता क्या करूँ ॥ २०८ ॥ चउपाई। अनु हउँ दोस देउँ का काहू। संगी कया मया नहिँ ताहू ॥ हतेउ पिारा मौत बिछोई। साथ न लागि आपु गा सोई॥ का मइँ कौन्रु जो काया पोखौ। दूखन मोहिँ आपु निरदोखौ ॥ फागु बसंत खेलि गइ गोरी। मो तनु लाइ आगि देइ होरी॥ अब अस काहि छार सिर मेलउँ । छारद होउँ फागु तस खेलउँ॥ कित तप कौन्ह छाडि कइ राजू। अाहर गएउ न भा सिध काजू ॥ पाउँ नहिँ हाइ जोगी तौ। अब सर चढउँ जरउँ जस सती॥
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