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पदुमावति । १ । असतुति-खंड । दोहा। उभय ॥ । - जुग जुग देत घटा नहीं उभइ हाथ तस कौन्ह । अउरु जो दोन्ह जगत मँह सो सब ता कर दीन्ह ॥५॥ निति = नित्य । जावंत = यावत। चाँटा = चौंटा । दिमिटि = दृष्टि । मितर = मित्र । सतरु = शत्रु। परगटप्रगट । गुपुत = गुप्त। श्रास = श्राशा। साँसा = श्वास । जुग = युग। उभदू = धनपति वही ईश्वर है जिस का कि यह संसार है। जो सब को नित्य (सब कुछ) देता है, परन्तु उस का भण्डारा नहीं घटता ॥ जगत में हाथौ से ले कर चौंटे तक जितने प्राणी हैं, सब को रात दिन भोजन बाँटा करता है। तिस को दृष्टि सब के ऊपर है। ऐसा कि मित्र शत्रु किसी को नहीं भूलता । (जो लोग ईश्वर से विमुख हैं, वे-हौ ईश्वर के शत्रु हैं ) ॥ पक्षौ और पतङ्ग ( फतिंगे, घास में जो छिपे रहते हैं ) किसी को नहीं भूलता। जहाँ तक कि प्रगट और गुप्त हैं। यहाँ प्रगट में पक्षी और गुप्त में फतिंगे को क्रम से ग्रहण किया है ॥ अनेक प्रकार के उपाय से अनेक भोग-भोजन सब को खिलाता है, परन्तु श्राप कुछ नहीं खाता। (जो रुचि लायक भोजन है, उसे भोग- भोजन कहते हैं )॥ तिम ईश्वर का यही खाना पीना है, जो सब को भोजन और जौवन देता है। अर्थात् जैसे लोग खाने पीने से हप्त होते हैं, उसी प्रकार और लोगों को भोजन और जीवन देने में ईश्वर दृप्त होता है ॥ सब किसी को हर एक श्वास में तिसौ (ईश्वर) को श्राशा है। परन्तु वह ईश्वर किसी के श्राशा से नैराश्य नहीं है ॥ तिम प्रकार से उभय (दोनों) हार्थों को किया है, अर्थात् फैलाया है, कि युग युग से देता चला पाता है, (परन्तु भण्डारा घटा नहीं)। जगत् के बीच और जो कुछ दिया हुश्रा (देख पडता) है, सो सब उसी का दिया हुआ है। (संहिता-कारों के मत से ४३२०००० सौर वर्ष का एक युग होता है, ज्यौतिष वेदाङ्ग के मत से ५ सौर वर्ष का युग होता है ) ॥ ५ ॥ चउपाई। आदि सोइ बरनउँ बड राजा। आदि-हु अंत राज जेहि छाजा ॥ सदा सरबदा राज करेई। अउ जेहि चहइ राज तेहि देई ॥ छतरि अछतरि निछतरहि छावा। दोसर नाहिँ जो सरबरि पावा ॥