२०६ - २०७] सुधाकर-चन्द्रिका। ४५१ तैसा =तथा। परहीं । टपकहिँ = टपक (प्रपतति) का बहु-वचन । आँसु = अश्र = आँस । तम = परदू ( पतति) का बहु-वचन । जउँ = ज्यौँ = यथा । झरही = झरदू (झरति) का बहु-वचन । बारी= वालिका । उजारी= उजार = उज्जरण ॥ पावा = पावद् (प्राप्नोति) का भूत-काल । भारति= श्रात = दुःख = अातुरौ। चोपु = चोप = वेग = इच्छा। अदूस= ऐसा । जाना =जान (जानाति) का भूत-काल । अंत अन्त में = आखिर में। कोपु = कोप = पल्लव ॥ रतन (राजा रत्न-सेन ) रोने लगा (आँसुओं को पति जान पड़ती है कि) जानाँ चूर हो कर, अर्थात् टूट कर मुक्ता-माला गिरती हो; जहाँ खडा होता है तहाँ हो मोतिओं को ढेर हो जाती है। (विलपने लगा, कि हाय) वह वसन्त, वह कोकिल सा वचन, कहाँ है और जिस फूल ने नयन-भ्रमर को बेध दिया वह फूल कहाँ है। जिस मूर्ति पर दृष्टि पडी थी वह कहाँ है; (उस ) मूर्ति ने हृदय में पैठ कर जी को निकाल लिया । (मेरी ऐसी भाग्य) कहाँ जिस से ( पद्मावती के ) दर्शन और स्पर्श का लाभ हो; यदि वह वसन्त-ऋतु हो भी तो करौल को क्या (भर्तृहरि ने भी नीति- शतक में लिखा है कि 'पत्त्रं नैव यदा करील-विटपे दोषो वमन्तस्य किम्')। पत्तों के विकुडने पर (और) जो वृक्ष हैं वे फूलते हैं (परन्तु) वह महुअा ही है जो ( पत्तों के विकुडने पर मेरे) ऐसा भूला हुआ रोता है (आँसुओं के बूंद मा, बहुत दिनों तक टपटप फूलों को टपकाया करता है)। महुआ उसी प्रकार टपकते है जैसे कि (मेरी) आँस ; वसन्त ऋतु में जैसे महुआ झरते हैं (उसी प्रकार) महुश्रा हो कर (मेरो आँस ) झरती हैं। मेरा वसन्त पद्मावती बाला है; जिस के विना (मेरे लिये) वसन्त उजाड हो गया । फिर बहुत श्रार्त (नाद) और भातुरौ से नूतन वसन्त को पाया; ऐसा नहीं जाना, कि पल्लव हो कर, अन्त में (सब ) पत्ते झड जाते हैं, अर्थात् यह न समझा था कि वसन्तागम में पल्लव होते ही पत्ते झड जायँगे ( पद्मावती आते हो फिर लौट जायगी) ॥ २०६ ॥ चउपाई। .. अरे मलेछ बिसुभासी देवा। कित मइँ आइ कीन्ह तोरि सेवा ॥ आपुनि नाउ चढइ जो देई। सो तउ पार उतारइ खेई॥
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।