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२०७] सुधाकर-चन्द्रिका। ४४५ अथ राजा-रतनसेन-सती-खंड ॥ २१ ॥ चउपाई। कइ बसंत पदुमावति गई। राजहि तब बसंत सुधि भई ॥ जो जागा न बसंत न बारी। नहिँ सो खेल न खेलन-हारी॥ ना उन्ह कइ वह रूप सौहाई। गइ हेराइ पुनि दिसिटि न पाई ॥ झरे सूखौ फुलवारौ। दिसिटि परी उकठौ सब छारी ॥ कई यह बसत बसंत उजारा। गा सा चाँद अथवा लेइ तारा ॥ अब तेहि बिनु जग भा अँध-कूपा। वह सुख छाँह जरउँ हउँ धूपा ॥ बिरह दवाँ को जरत सिरावा। को पौतम सउँ करइ मेरावा ॥ दोहा । हिअइ देख जो चंदन खेवरा मिलि का लिखा बिछोउ। हाथ मौं जि सिर धुनि सो रोअइ जो निचिंत अस सोउ ॥ २०४ ॥ कद = कर = कृत्वा । बसंत = वसन्त-ऋतु । गई = गया (अगात् ) का स्त्रीलिङ्ग । तब = तदानीम् । सुधि = शोध खबर । भई = भया का स्त्रीलिङ्ग (बभूव )= हुई। जागा = जाग (जागर्त्ति) का भूत-काल। बारी= वाटिका, वा वालिका। खेल खेला-क्रीडा। कदू = को। साहाई = मोहद (शोभते) का भूत-काल । गद् हरादू हेराय गई = हृत हो गई = लोप हो गई। पुनि = पुनः = फिर । दिमिटि = दृष्टि । आई = आवद् (आयाति) का भूत-काल में स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन । फूल = फुल्ल - पुष्य ।