२०२] सुधाकर-चन्द्रिका । ४४१ .. (देव-मन्दिर श्रा कर) वह पद्मावती अपने मन्दिर में पैठौ, अर्थात् प्रवेश की, और हंसती हुई, जा कर सिंहासन पर बैठ गई। विहार (सैर) को कथा (सखिओं से ) सुन कर रात को सूती; भोर होते-ही प्रिय-सखी को बुलाई । (और कहने लगी, कि) हे सखि कल देवता को पूज कर जैसे श्राई (उन सब बातों को तो तुम जानती हो हो; नई बात यह है कि भाज) रात्रि में एक सपना देखी हूँ कि । जानौँ पूर्व दिशा से चन्द्रमा उदय को लिया है, अर्थात् उदय हुआ है, और पश्चिम दिशा में सूर्य उदय किया है। फिर सूर्य चल कर चन्द्र के पास आया है; चन्द्र और सूर्य दोनों में मिलाप हुआ है। जानौँ दिन और रात दोनों एक में मिल गए और राम ने श्रा कर लङ्का को घेर लिया है। (इस के अनन्तर) तैसा कुछ हुआ जो कहा नहीं जाता, (उस बात के कहने का शास्त्रों में) निषेध है; (यही समझ लो) कि अर्जुन के वाण से राज (निशाना) बिध गया (द्रौपदी-रूपा जो मैं चन्द्र, तिस का उस सूर्य से विवाह हो गया) । द्रुपद ने द्रौपदी के विवाह के लिये स्वयंवर रचा था। उस में एक धनु और पाँच वाण रख दिए थे और एक यन्त्र के ऊपर प्रकाश में एक निशाना, जो कि बहुताँ के मत से सर्पाकार वा मत्स्याकार था, लटका दिया गया था ; यन्त्र में एक छेद कर दिया था। प्रतिज्ञा थी कि जो दूस धनु को चढा कर, इन्हीं पाँच बाणों से निशाने को इस प्रकार से बेध दे, कि बाण यन्त्र के छेद में से होते हुए निशाने को बेधे तो उसी के साथ द्रौपदी का विवाह हो, अर्थात् द्रौपदी उसौ पुरुष की भार्या होगी। रङ्गशाला में द्रौपदी का भाई सृष्टद्युम्न ने ललकार कर कहा है कि- इदं धनुर्लक्ष्यमिमे च वाणाः टण्वन्तु मे भूपतयः ममेताः । छिद्रेण यन्त्रस्य समर्पयध्वं शरैः शितैोमचरैर्दशाधैः ॥ एतन्महत्कर्म करोति यो वै कुलेन रूपेण बलेन युक्तः । तस्याद्य भार्या भगिनी ममेयं कृष्णा भवित्री न मृषा ब्रवीमि ॥ (भारत, श्रादि पर्व, १८७ अध्या ० श्लो. जानौँ हनूमान् ने वाटिका को ( पद्मावती के भूषणों को) विध्वंस कर दिया है और लङ्का [ पद्मावती को लङ्क = ( कटि)] को नष्ट भ्रष्ट कर दिया है। ऐसा ( स्वप्न) देखते-ही मैं जाग उठी। (सो) हे सखि, विचार कर (इस ) रूपने को कह, अर्थात् दूस सपने का फल विचार कर, कह ॥ २० २ ॥ 56
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