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२०१ - २०२] सुधाकर-चन्द्रिका। ४३८ .. = सब किसी ने यात्रा की, रथ को हाँका; और पर्वत (देव मन्दिर का पर्वत ) को छोड कर, सिंहल-गढ की ओर दृष्टि को ॥ सब बली देवता बलि हो गए अर्थात् पद्मावती के रूप से मोहित हो मृतक से हो गए; (दूस प्रकार) हत्यारिन (पद्मावती) (सब को) हत्या को ले कर चली ॥ (कवि कहता है कि) कौन ऐसा हितैषी है जो मरे की बाँह पकडे ; यदि जीव अपनी देह में नहीं है (तो कोई साथ देने वाला नहौँ ) ॥ जब तक जीव है तभी तक सब कोई अपना है ; जीव के विना सभी पराए हो जाते हैं ॥ भाई, बन्धु, और प्यारा मित्र, (सब) जीव के विना एक घडी भी नहीं रख सकते ॥ जो विना जीव को देह को ( भस्म कर) राख को ढेरौ कर राख में मिला देवे वही पूरा हितू है ॥ (जिम जीव ही से संसार में सब नाता है) उसी जौव के विना अब राजा मुर्दा हो गया; कौन उठ कर बैठे और गर्व से गरजे ॥ भूमि में पडी देह रो रही है (रो रो कर पुकारती है कि) अरे जीव, अरे राजा वलि और भौम, कहाँ हो (श्रा कर शरीर के सहायक हो); अरे (दूस कु-अवसर में) कौन उठा कर (मुझे ) बैठावे और कौन प्रियतम जीव को रोके (और डाँटे कि इस की देह को न छोड दूसौ में रह) ॥ २० १ ॥ चउपाई। पदुमावति सो मँदिर पईठौ। हँसत सिंघासन जाइ बईठौ ॥ निसि सूती सुनि कथा बिहारी। भा बिहान अउ सखी हकारी॥ देवो पूजि जस आण्उँ काली। सपन एक निसि देखेउँ आली ॥ जनु ससि उदउ पुरुब दिसि लौन्ला । अउ रबि उदउ पछिउँ दिसि कीन्हा॥ पुनि चलि सूर चाँद पहिँ अावा। चाँद सुरुज दुहुँ भाउ मेरावा ॥ दिन अउ राति जानु भण एका । राम आइ राधान-गढ तस किछ कहा न जा निखेधा। अरजुन-बान गा बेधा॥ बैंका॥ दोहा। बारि। जनहुँ लंक सब लूसी हनू बिधाँसो जागि उठेउँ अस देखत सखि कहु सपन बिचारि ॥ २०२॥