१६५ - १९६] सुधाकर-चन्द्रिका। ४२७ .. = = पड इस प्रकार सिंहल को रानी पद्मावती, खेलती महादेव के मन्दिर के पास जा पहुँचौ ॥ सब देवता ( पद्मावती और सहेलिओं को) देखने लगे, (देखते ही पद्मावती और सहेलिओं के अङ्ग में दृष्टि-किरण के लगते-हौ) तिन्ह देवताओं के सब दृष्टि- दोष भाग गए, अर्थात् देवताओं को दिव्य-दृष्टि हो गई। (मन में कहने लगे कि) यह सुना था कि इन्द्र-लोक में अपरा रहती हैं, (मो ये सब ) परमेश्वरौ रूप कहाँ से श्रा गई। कोई कहता है कि पद्मिनी श्राई हैं ; कोई कहता है कि ( साक्षात् ) चन्द्र, नक्षत्र, और तारा-गण हैं ॥ कोई कहता है कि फूल हैं, कोई कहता है कि पुष्य- वाटिका है; (इस प्रकार ) बालिकाओं को देख कर सब (देवता) भूल गए । (उन्ह सबों के ) एक तो सुन्दर रूप, दूसरे सेंदुर को बनावट से, जान पडता है कि सब पृथ्वी में दीपक बारे हुए हैं ॥ जितने देवता है उन में जो जो (बालिकाओं) को देखते हैं सब घूमरौ खा कर गिर पडते हैं, जानौँ मृग-तृष्णा से हरिण मोह गए हाँ ॥ कोई भ्रमर हो कर गिर पड़ा जाना (सहेलियों के) सुगन्ध ने (उस को) दबा दिया। कोई दीये का फतिंगा हो गया, अर्थात् जैसे दीये की ज्योति में कर फतिंगा तडपता है तैसे तडपने लगा; देह श्रध-जरी हो कर काँपने लगौ ॥ १६५॥ चउपाई। पदुमावति गइ देवा-दुआरू। भौतर मँडफ कौन्रु पइसारू ॥ देओहि साँसउ भा जिउ केरा। भागउँ केहि दिसि मंडफ घेरा ॥ एक जोहार कौन्ह अउ दूजा। तिसरइ आइ चढाई पूजा ॥ फर फूलन्रु सब मँडफ भरावा। चंदन अगर देवो अन्रुवावा ॥ भरि सैंदुर आगइ भइ खरौ। परसि देओ पुनि पान्ह परी ॥ अउरु सहेलो सबइ बिबाहौं। मो कहँ देशो कतहुँ बर नाहौँ ॥ हउँ निरगुन जेइ कौन्ह न सेवा। गुन निरगुन दाता तुम्ह देवा ॥ दोहा । बर सँजोग मोहिँ मिरवहु कलस जात हउँ मानि। जेहि दिन होछा पूजइ बेगि चढावउँ आनि ॥ १८६ ॥
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