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१६३-१६४] सुधाकर-चन्द्रिका। उरझाना पाउ= प्राप्यते = पाता वा पाती है। क = के। हाथ = हस्त । जो = यः। आँट अँटता है = आस्थीयते । हार मुक्का-हार = मोती की माला। चौर = वस्त्र=कपडा। अरुझा = अरुझदू (प्रारुध्यते) का भूत-काल में एक-वचन । जहाँ = यत्र । कुअ = छूती है (स्पृशति )। तहाँ तत्र । काँट काँटा = कण्टक ॥ फिर मब सहेलियाँ, जिन को जिस दिशा में जो लतायें पाम (पास) में थौं उन के फूलों को चुनने लगौं। किसी ने केवडे को, किसी ने केसर और नेवारी को, किसी ने फुलवारी के बीच केतको और मालती को चुना। किसी ने हजारे (गेंदे ), कुन्द और करने को, किसी ने चमेली, नागेश्वर और वरण को चुना। किसी ने गुलाब, सुदर्शन और कूजे फूल को, किसी ने रूप-मञ्जरी और गौरौ को चुना। किसी ने अपने पास के पारिजात को, किसी ने कदम्ब को छाया में (लगी हुई) सेवती के फूल को चुना। कोई (सुगन्ध-द्रव्यों से ऐसौ गमक रही हैं ) जानौँ चन्दन के फूलों से फूली हुई हैं ; कोई अजान वृक्ष के नीचे (उस को शोभा से ) भूली हुई है, अर्थात् जिस का नाम नहीं जानती उस को पहचानने की इच्छा से उस के नीचे उम को शोभा में भूली हुई है ॥ जिस के हाथ में जो पाया (उसो को पाया इस लिये) किमी ने और किसी ने पत्ती को। किमी का हार और (किमी का) कपडा (कॅटौले वृक्ष में) उरझ गया। (दूस लिये वह ) जहाँ छूती है तहाँ काँटा हो काँटा जान पडता है ॥१६३ ॥ को पाया चच्याई। फर फूलन्रु सब डार श्रौढाई। ग्रूड बाँधि कइ पंचम गाई॥ बाहिँ ढोल दुंदु अउ भेरौ। माँदर तूर झाँझ चहुँ फेरौ ॥ सिंग संख डफ बाजन बाजे। बंसकार महुअरि सुर साजे ॥ अउरु कहिअजित बाजन भले। भाँति भाँति सब बाजत चले। रथहिँ चढौं सब रूप सोहाई। लेइ बसंत मढ-मँडफ सिधाई। नउल बसंत नउल वेइ बारौ। सैंदुर धमारी॥ खनहिँ चलहि खन चाँचर होई। नाँच कोड भूला सब कोई ॥ बूका होइ