१८७] सुधाकर-चन्द्रिका। ४०६ अथ बसंत-खंड ॥२०॥ चउपाई। दइस दइत्र कइ सो रितु गवाँई। सिरी-पंचमी पूजौ आई॥ भण्उ हुलास नउल रितु माँहा । खन न सोहाइ धूप अउ छाँहा ॥ पदुमावति सब सखौ हँकारौ। जावत सिँघल-दीप कइ बारौ ॥ आजु बसंत नउल रितु-राजा। पंचमि होइ जगत सब साजा ॥ नउल सिँगार बनाफर कौन्हा। सौस परासहि सैंदुर दौन्हा ॥ बिगसि फूल फूले बहु बासा। भवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥ पिअर पात दुख झरे निपाते। सुख पल्लउ उपने हाइ राते दोहा। अवधि आइ सो पूजौ जो इच्छा मन कौन्छ । चलहु देउ-मढ गोहने चहउँ सो पूजा दोन्ह ॥ १८७ ॥ दश्र = देव। कदू = कर = कृत्वा । रितु = ऋतु । ( संस्कृत में ऋतु पुंलिङ्ग है परन्तु हिन्दी में पुंलिङ्ग और स्त्री लिङ्ग दोनो है, कवि लोग दोनों का प्रयोग करते हैं)। गवाँई = बिताई (गम गतौ से)। सिरौ= श्रीः। पंचमी = पञ्चमी । श्री पञ्चमी = वसन्त- पञ्चमौ = माघशुक्ला पञ्चमी = जिस दिन से वसन्तोत्सव प्रारम्भ होता है। पूजी = पूजदू ( पूर्यते ) से प्रथम-पुरुष मैं भूत-काल का एक-वचन । श्राई = श्रादु = एत्य = श्रा कर। (बभूव) श्राबाद। - - हुश्रा । हुलास= उल्लास = नउल= नवल= नए। भप्रउ =भया 52
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