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४०८ पदुमावति । १६ । सुआ-भेंट-खंड। [१८६ काया-काय श्राव नउ= नव = नया। अउतार = अवतार =जन्म। नदू = नई = नवा । पारौर । होदू = (भवेत् ) होवे । अमर = जो न मरे= मृत्यु-रहित । मर कदू = मर कर (मृत्वा)। जौबा = जौवेत् = जौवे । भवर = भ्रमर। कवल = कमल । मिलि कदू = मिल कर (मिलित्वा)। मधु = शहद । पौधा = पौवे (पिबेत् ) ॥ आता है (आयाति)। रितू = ऋतु । बसंत वसन्त । मधुकर भ्रमर । बासुबास सुगन्ध । जोग = योग। इमि = एवं = इस प्रकार। सिद्धि = मनोरथ-सिद्धि। समापत = समाप्त = पूर्ण = पूरी। तासु तस्य तिम का ॥ जहाँ योगौ (रत्न-सेन) (शुक को) राह को ओर आँख लगाए और विरह से विरही हो कर बैठा था, (वहाँ पर) शुक (होरा-मणि) श्राया। पक्षी (शुक) ने श्रा कर संदेसे को कहा, कि गोरख मिला और (उस गोरख से ) उपदेश भी मिला । (गोरख से यहाँ पद्मावती है। गोरख के लिये २४० पृ० देखो।) तुम्हारे ऊपर गुरु ( पद्मावती, गोरख-रूप) ने बहुत कृपा को ; श्राज्ञा कौ (कि रत्न-सेन को चेला करूंगा) और पहली बात को भी दे दिया अर्थात् बता दिया । (पद्मावतौ ने) अकेले में हो कर एक बात कही ; कि गुरु जैसा भृङ्ग और चेला जैसा फतिंगा है (मङ्ग के लिये १५७ पृ० देखो ) । भृङ्ग उस फतिंगे को निश्चय से लेता है, और एक ही वार पकडता है और (उस में अपना ) जीव (डाल ) देता है। तिस ( फतिंगे ) के ऊपर गुरु (भृङ्गः) ऐसौ कृपा करता है, कि नया जन्म और नई शरीर दे देता है, अर्थात् अपनी जाति का बना देता है। इस प्रकार ( फतिंगे के ऐसा) मर कर जौवे तो अमर होवे, और (तब ) भ्रमर के ऐमा कमल में मिल कर मधु, अर्थात् कमल-रस, को पौवे ॥ जब वसन्त-ऋतु आती है तभी भ्रमर (देख पड़ते हैं ), और तभी (फूलों में) सुगन्ध भी होती है; जो योगी दूस प्रकार से ( फतिंगे के ऐसा ) योग को करता है, तिस को मनोरथ-सिद्धि पूरी हो जाती है ॥ १८६ ॥ .. .. इति पद्मावती-शुक-ममिलन-नामैकोनविंशति-खण्डं समाप्तम् ॥ १८ ॥