१८० - १८१] सुधाकर-चन्द्रिका। वर्णन के योग्य माता और पिता धन्य हैं। जिन के वंश में (ब्रह्मा ने ) ऐसे अंश को ले आया अर्थात् ऐसे पुरुष को उत्पन्न किया। (रत्न-सेन में ) बत्तीसो लक्षण हैं (इस ग्रन्थ का ७६-७७ पृ देखो)। (रत्न-सेन का) निर्मल कुल, रूप और तेज बखाना नहीं जाता। (मेरी) ऐसौ भाग्य थी कि उन्हों ने मुझे लिया (खरीदा), (क्यों कि) सोने में सोहागा (रत्न-सेन में पद्मावती) मिलने चाहता है। उस नग (रत्न-सेन ) को देख कर, निश्चय कर मेरी इच्छा हुई कि, यहौ रत्न पदार्थ ( पद्मावती) को जोडी है। यही सूर्य निश्चय कर चन्द्र (पद्मावती) के योग्य है; (दूस लिये) तहाँ पर मैं ने तुम्हारा वर्णन किया ॥ (देखो) कहाँ रत्नाचल में रत्न और कहाँ सुमेरु में मोना । (पर) देव ने जो दोनों को जोडी लिखी थी (दूस लिये) किसी न किसी चाल से दोनों को जोडी मिल गई। ( सोने की अंगूठी में रत्न ही जडा जाता है, दोनों के मिलने-हौ से शोभा बढती है। दक्षिण ध्रुव के पास रत्नाचल में रत्न होता है और उत्तर ध्रुव के पास सुमेरु में सोना । पर दोनों को जोडौ लिखी थौ । इस लिये अँगूठी में दोनों एक? हो जाते हैं। इसी प्रकार तुम दक्षिण दिशा सिंहल में और राजा रत्न-सेन उत्तर दिशा चित्तौर में । परन्तु यदि जोडी लिखी है तो अवश्य मिलना होगा) ॥ १८० ॥ । चउपाई। सुनि कइ बिरह-चिनगि ओहि परौ। रतन पाउ जउ कंचन-करी ॥ कठिन पेम बिरहा दुख भारौ। राज छाडि भा जोगि भिखारौ ॥ मालति लागि भवर जस होई। होइ बाउर निसरा बुधि खोई ॥ कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ। सिंघल-दीप जाइ जिउ देऊँ॥ पुनि ओहि कोउ न छाडि अकेला। सोरह सहस कुर भए चेला ॥ अउरु गनइ को संग सहाई। महादेओ-मढ मेला जाई ॥ सूरुज पुरुस दरस कइ ताई। चितवइ चाँद चकोर कि नाई॥ दोहा। तुम्ह बारौ रस जोग जेहि कवलहि जस अरघानि । तस सूरुज परगास कइ भवर मिलाउँ आनि ॥ १८१ ॥
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