पदुमावति । १६ । सुआ-भेंट-खंड । [१८० का - सो नग देखि हौंछा भइ मोरौ। हइ यह रतन पदारथ जोरौ ॥ हइ ससि जोग इहइ पइ भानू। तहँ तोहार मइँ कौन्ह बखानू ॥ दोहा । कहाँ रतन रतना-गिरी कंचन कहाँ सुमेरु । दइउ जो जोरौ दुहुँ लिखी मिली सो कउन-हुँ फेरु ॥ १८० ॥ बदूठ = बैठा = बैठद् (विशति) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । राज = राजा वा राज्य । पिता बाप। ठाऊँ = स्थान । रतन-सेन रत्न-सेन । नाऊँ = नाम । क्या = कथम् । वरनउँ वर्णये = वर्णन करूँ। धनि = धन्य । देस = देश । दिवारा दौपाकार =दीए के ऐसा उज्वल । जहँ = जहाँ = यत्र । अस = एतादृश = ऐसा। नग = पत्थल, यहाँ रत्न । उपना = उत्पन्न हुत्रा (उत्पद्यते से लिट् का प्रथम-पुरुष में एक-वचन)। उजिारा = उज्वल । बखाना = वर्णन-योग्य । बंस -वंश । अंम = अंशः अवतार । आना = आनदू (पानयति) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । लखन = लक्षण। बतौस-उ = द्वात्रिंशदेव = बत्तीसो। (इस यन्थ का ७६-७७ पृ० देखो) । निरमरा = निर्मल = साफ। जादू = जाता है (याति)। करा = कला = तेज = कान्ति । हउँ= हौँ = मैं, यहाँ मुझे। अहा = श्रासीत् = थी। भागू = भाग्य । चाहद (चदते या इच्छति) = चाहता है। सोनदू =वणे = सोने में। मिला = मिलना मेलनम् । सोहागू = मोहागा। देखि = देख कर (दृष्ट्वा )। हौंछा = हि-दच्छा = निश्चय, इच्छा । भद् = भई = हुई (बभूव)। मोरी मेरी = मम। हदू = है (अस्ति)। यह = अयम् । रतन = रत्न । पदारथ = पदार्थ = वस्तु । जोरी= जोडी = योज्य। मसि = शशि चन्द्र। जोग = योग्य । दूहदू = यही = अयमेव । पद = अपि = निश्चय । भानू = भानु = सूर्य । ताहार = तुम्हारा । म = मैं । बखानू = वर्णन ॥ रतना-गिरि = रत्न-गिरि = रत्न का पहाड । कंचन कञ्चन = सुवर्ण = सोना। सुमेरु सोने का पहाड । ददउ = देव वा देव (भाग्य) = ब्रह्मा = विधि । दुहुँ = दोनों को दयोरपि। लिखी = लिखदू (लिखति) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । कउन-ऊँ = किसी = केनापि । फेरु = फेर = स्फुरण पिता के स्थान पर जो राजा बैठा, उस राजा का रत्न-सेन नाम है। क्या वर्णन करूँ। दीपक के ऐसा (वह) देश धन्य है। जहाँ कि ऐमा उजला नग (रत्न-सेन) उत्पन्न हुआ। । चाल ॥
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