१०६ -१८०] सुधाकर-चन्द्रिका। ३८५ पाउ - सार्थ = मङ्ग ॥ सब्जित वस्तु ॥ पाता है (प्राप्यते )। मौचु = मृत्यु = मौत । बाँधा = बंधा = बद्ध । वेद = वह । धरि =त्वा = धर कर = पकड कर । बैंचा = बेंचदू (विक्रोणोते ) का प्रथम-पुरुष में लिट का एक-वचन । बाम्हन = ब्राह्मण । जंब-दीप = जम्बू-दौप। गाउँ = गया (गाङ् गतौ से बना है)। माथा = चितर = चित्र = विचित्र । चितउर-गढ= चित्तौर-गढ। चितउर-चित्रवर वा चित्रपुर। गढ=गाढ =दुर्ग= किला। चितर-सेन = चित्रसेन । कर = का। राज =राज्य । टीका तिलक । पुतर = पुत्र = बेटा। श्रापु = श्रात्मा = खयम्। लोन्ह लिया = लेद (लाति) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन। सिउ = शिव = महादेव । माज = फिर रानी ने हंस कर कुशल पूछा (और कहा कि) पिँजडे को खाली कर क्यों चले गए। (शक ने कहा कि ) हे रानी तुम युग युग सुख से सिंहासन (पर बैठो); पक्षी को पिँजडे को स्थिति नहीं मोहतौ। जहाँ (जैसे-हौ) पर हुश्रा (फिर) कहाँ ठहर कर रहना; जैसे-ही डेने में पर हुए (तैसे-हौ पक्षी) उडना चाहता है। (मैं) पक्षी जो पिजडे में घिरा था, तहाँ बिलैया श्रा कर फेरी करने लगी। (मैंने सोचा कि) एक दिन आ कर निश्चय हाथ डालेगौ; तिमी डर से वन-वास के लिये खेल किया अर्थात् चल दिया। तहाँ श्रा कर बहेलिये ने लग्गी को साधा; मौत का बंधा छूटने नहीं पाता । (मैं फंस गया) उस ने पकड कर एक ब्राह्मण के हाथ बैंच दिया, उस (ब्राह्मण) के साथ साथ जम्बू-द्वीप में गया ॥ तहाँ विचित्र चित्तौर-गढ में राजा चित्र-सेन को राज है, (उस ने) बेटे को तिलक (राज-गद्दी) दे कर आप स्वयं महादेव के माज को लिया, अर्थात् मर कर शिव-लोक को गया ॥ १७८ ॥ .. चउपाई। बइठ जो राज पिता के ठाऊँ। राजा रतन-सेन ओहि नाऊँ ॥ का बरनउँ धनि देस दिशारा। जहँ अस नग उपना उँजिवारा ॥ धनि माता अउ पिता बखाना। जेहि के बंस अंस अस आना ॥ लखन बतीस-उ कुल निरमरा। बरनि न जाइ रूप अउ करा॥ वेइ हउँ लौन्ह अहा अस भागू। चाहइ सोनइ मिला सोहागू॥
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