३०२ पदुमावति । १६ । सुना-भेंट-खंड । [१७८ अथ पदुमावति-सुधा-भेंट-खंड ॥ १८ ॥ चउपाई। तेहि बिग होरा-मनि आवा। पदुमावति जानहुँ जिउ पावा ॥ कंठ लाइ सूत्रा सो रोई। अधिक मोह जउ मिलइ बिछोई॥ बुझा उठा दुख हिअइँ गँभौरू। नयनहिँ आइ चुा हाइ नौरू ॥ रही रोइ जउँ पदुमिनि रानौ। हँसि पूछहिँ सब सखी सयानी ॥ मिले रहस चाहिअ भा दूना। कित रोइअ जउ मिला बिछूना ॥ तेहि क उतर पदुमावति कहा। बिछुरन दुख जो हिअइँ भरि रहा ॥ मिलत हिअइँ आउ सुख भरा। वह दुख नयन नौर होइ ढरा ॥ दोहा। बिछुरंता जब भेंटइ सो जानइ जेहि नेह । सुख सुहेला उग्गवइ दुक्ख झरइ जिमि मेह ॥ १७८ ॥ बिश्रोग = वियोग । होरा-मनि = होरा-मणि शुक । श्रावा = श्राया = श्रायात् । जानहुँ = जाने = जानौं। जिउ = जीव । पावा = पाया = प्राप्नोत् । कंठ = कण्ठ = गला । लादू = लगा कर। सूत्रा= शुक-मूगा =सा = वह । रोई = रोअद (रोदिति) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । अधिक = बहुत। जउ = यदि =जौं । मिल मिलता है (मिलति)। बिछोई = विछोही= विच्छुरित = विकुडा हुआ। बुझा = बुझद (बुन्ध निशामने दुध्यते से ) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । उठा = उदतिष्ठत् । सुग्गा । सो
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