१७७] सुधाकर-चन्द्रिका। जैसे कराह मैं भस्म हो कर, घौ जलता हो (तैसे ही पद्मावती का जौ जल रहा है) मलया वल्ल-रूप पति जल्दी से नहीं आता है (जिस से जी को जलन बुझे) ॥ ( पद्मा- वती कहती है, कि) किम देवता को जा कर, कूऊँ जिस से सुमेरु (सुमेरु ऐसा पति) को हृदय में लगा कर (दूस जलन को) निगल जाऊँ अर्थात् बुझाऊँ । छिपे हुए फल (जलन-रूप फल्ल हा!) अब माँस की राह से प्रगट हुए, अर्थात् गर्म साँस चलने लगी; सो अब (मैं) अच्छौ ( कान्ति को) हो कर, फिर घटना ( मलिन हुआ) चाहती है। अरे यह जो संयोग मो ऐसा (श्रा गया जिस से अब) मरना होगा; सुख-विलास ( का ममय) बीत जाने पर भोग करनेवाले को (ले कर) क्या करना होगा । ( कवि कहता है, कि) जवानी चञ्चल और ढीठी है ; बेकाम हो का काम करतो है। धन्य कुल-बधू है (कि इस) जवानी में मन में लज्जा कर (अपने) कुल्ल को धरती है, अर्थात् नहीं छोडती ॥ १.७७ ॥ इति पद्मावती-वियोग-खण्डं नामाष्टादश खण्डं समाप्तम् ॥ १८ ॥
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