१७६ - १७७] सुधाकर-चन्द्रिका । ३८८ (हृदय में ) उत्पन्न हुआ, (तो अभौं ) भारी मत से मन को बाँध रखो (जिस में इधर उधर) न चले | जिस के जी में मत्-पहाड होता है, (उस के ऊपर) पहाड (भौ गिर) पडे (तो भौ उस का) बाल नहीं बाँकता (टेढा होता) ॥ सती जो प्रेम से पति के लिये जलती है, (उस के ) हृदय में यदि सत्-धर्म है तो ( उस को) श्राग ठंढी (जान पडती है) ॥ जो जवानी चतुर्दश-कला अर्थात् चतुर्दशी का चन्द्र है, उस में विरहाग्नि को चिनगी पड़ जाने से फिर वह चन्द्र जला करता है। (चतुर्दशी के चन्द्र के लिये १६ दोहे को टौका देखो पृ० २२)। दम जलन से घबडाना न चाहिए ) ॥ जो हवा को रोक रखता है वहीं योगी, यतौ, कहाता है; और जो काम को रोक रकबे वही स्त्री सती (कहाती) है ॥ (योग-क्रिया करनेवाले को योगी कहते हैं; यति के लिये ३० दोहे की चौपाइयों को टौका देखो पृ० ४६ ) वसन्त-ऋतु श्राता है (जब ) फुलवारी फूल उठती हैं । (उस समय तब ) सब लडकियाँ (दर्पन के लिये) देव-द्वार में जायगौ ॥ फिर तुम (भी) वसन्त ले कर (वसन्त के फूलों के ऐसी सखियों को ले कर ) जाओ और देवता को पूज कर मनाओ, (कि हे देव) संसार में जन्म कर जीव तो पाया (अब) पति पा कर (उस को) सेवा ( करूं ऐसा वर दान देओ) ॥ १७६ ॥ चउपाई। जब लगि अवधि चाह सो आई। दिन जुग बर बिरहिनि कहँ जाई ॥ नौंद भूख अह-निसि गइ दोऊ। हिअइँ मारि जस कलपइ कोज ॥ रोग रोग जनु लागहिँ चाँटे। सूत सूत बेधहिँ जनु काँटे ॥ दगधि कराह जरइ जस घौज। बेगि न आउ मलइ-गिरि पौज ॥ कवन देवो कहँ जाइ परासउँ। जेहि सुमेरु हिअ लाइ गरासउँ गुपुत जो फल साँसहिँ परगटे। अब हाइ सुभर चहहिँ पुनि घटे ॥ भसँजोग जो रे अस मरना। भोगी गए भोग का करना॥ दोहा। जोबन चंचल ढीठ हइ करइ निकाजइ काज । धनि कुलवंति जो कुल धरइ कइ जोबन मन लाज ॥ १७७ ॥ इति पदुमावति-बिश्रोग-खंड ॥ १८ ॥
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