१७५ - १७६] सुधाकर-चन्द्रिका । .. विरह माँप हो कर, शिर पर चढ, काट रहा है; और आग हो कर, चन्द्रमा में जा कर वाम किया है (इस से चन्द्र-किरण मेरे ऊपर आग बरसाती हैं) ॥ विरहिणी को चन्द्र-किरण श्राग ऐमौ जान पड़ती है यह बात संस्कृत काव्यों में बहुत प्रसिद्ध है। श्रीहर्ष ने भी नैषध में लिखा है। जब चन्द्र-ताप से दमयन्ती व्याकुल हुई है तब मखौ से कहती है, कि - कुरु करे गुरुमेकमयोघनं वहिरितो मुकुरं च कुरुष्व मे । विशति तत्र यदैव विधुस्तदा सखि सुखादहितं जहि तं द्रुतम् ॥ ( स० ४ श्लो० ५७ ) जवानी पची है उम के लिये विरह व्याधा है; विरह-रूपी सिंह का जवानौ-हरिणी भक्षण है॥ (विधना ने) कयाँ जवानी को सोने का पानी बनाया, जिम को कि विरह कठिन (कडी आँच में) औटन देता है, अर्थात् श्रौटता है। जवानी-रूपी पानी को विरह-स्याही ने छू दिया (जिम से वह पानी मैला हो गया); (जवानी में) भ्रमर फूलते हैं और सूगे हो कर फलते हैं (जवानी के प्रारम्भ में स्तनाय पहले कुछ काले रहते हैं, वे ही जानाँ भ्रमर के ऐसे काले फूल हैं ; फिर स्तन वढने पर शुक के ऐसे पौले हो जाते हैं, बे हो सुग्गे के ऐसे फल हैं ॥) जैसे ही जवानो-चन्द्र उदय हुआ तैसे हो संग में विरह-राहु लग गया; (दूम कारण हे धाई) घटते घटते मैं चौण (दुर्वल) हो गई किसी से कह कर (अपनौ दशा के) पार नहीं हो सकती ॥ १०५ ॥ = च उपाई। नयन जो चाक फिरहिँ चहुँ ओरा। चरचइ धाइ समाइ न कोरा ॥ कहेसि पेम जउ उपना बारी। बाँधहु सत मन डोल न भारौ ॥ जेहि जिउ मँह सत होइ पहारू। परइ पहार न बाँकइ बारू॥ सती जो जरइ पेम पित्र लागी। जउ सत हिअ तउ सौतल आगी॥ जोबन चाँद जो चउदस-करा। बिरह क चिनगि चाँद पुनि जरा ॥ न-बंध सो जोगी जती। काम-बंध सो कामिनि प्राउ बसंत फूल फुलवारी। देवा-बार सब जइहहिँ बारौ॥ पवन- सतौ॥
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