१७ - १७५] सुधाकर-चन्द्रिका। ३८५ जब जइस = जैसे = यथा । 1 = मध्य। यावत् । लगि = लग्न । जब लगि = जब तक । पौउ = प्रिय = पति । मिल मिले (मिल सङ्गमे से)। साधु = साधय । पौर = पीडा। सौप = मोपौ = शुकि। मेवाती खातौ। तपद तपति = तपती है। मझ नौर = पानी॥ (धाई कहती है, कि) हे पद्मावती दूं समुद्र है और समझदार है, हे रानी तेरी बराबरी में समुद्र भी नहीं पूरा पडता ॥ नदी तो श्रा कर, समुद्र में समा जाती है, (पर) कहो तो समुद्र इधर उधर चल कर कहाँ समाय ॥ अभौँ तेरा हृदय कमल को कली है, (खिलने पर) जो तेरे लिये (विधना ने ) जोडा लिखा है वह ( पति-रूपी) भ्रमर श्रावेगा॥ अभौं) जवानी-घोडे को हाथ से पकड लीजिए जहाँ जाना चाहे वहाँ मत जाने दीजिए । जवानो बली मस्त हाथी है, (उस के लिये) ज्ञान-अङ्कुश को पकडो जिस में (वह हाथी) रहे, इधर उधर न जाय ॥ हे बेटी अभौं तूं ने प्रेम-खेल को नहीं खेलौ है (इस लिये हूँ ) क्या जाने, कि (प्रेम-खेल में ) कैसा दुःख होता है ॥ आकाश की ओर जो दृष्टि है उसे झुका कर, नीचे की ओर कर । देख, सूर्य हाथ में नहीं आता, अर्थात् नहीं पकडा जाता ॥ जब तक तुझे (सपने में ) पति मिलता है तब तक प्रेम को पीडा को साध, अर्थात् मह । जैसे कि सौपी समुद्र के पानी के बीच (पडी) खाती के लिये तप करती है । (सौपी खाती के लिये १४१ वें दोहे को टौका देखो, दूस ग्रन्थ का पृ० २८३- २८६ ) ॥ १०४ ॥ चउपाई। दहइ धाइ जोबन अउ जौज। होई परइ अगिनि मँह घौज ॥ करवत सहउँ होत दुइ आधा। सहि न जाइ जोबन कइ दाधा ॥ बिरहा सुभर समुद असँभारा। भवर मेलि जिउ लहरहिँ मारा ॥ बिरह नाग होइ सिर चढि डसा। अउ होइ अगिनि चाँद मँह बसा ॥ जोबन पंखौ बिरह बिश्राधू । केहर भण्उ कुरंगिनि खाधू ॥ कनक-पानि कत जोबन कीन्हा । अउटन कठिन बिरह ओहि दीन्हा ॥ जोबन जलहि बिरह मसि छूा। फूलहिँ भवर फरहिँ भा सूत्रा॥ 49
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