१७३ - १७४] सुधाकर-चन्द्रिका। ३८३ ऐमा - - परिउ = समुद्र। गंभौर बिश्रोगू = वियोग = जुदाई । गरुत्र = गुरु = भारौ । अपेल = हठाने योग्य नहीं। पहारू
पहाड = प्रहार । सहि = सहन = बर्दाश्त । जादू = जायते = जाता है। भारू = भार
बोझा। अम = एतादृश। कोई = कोऽपि । नवद् = नमति = झंकता है। जउ = यदि = जौँ । आँकुस = अङ्कुश । होई = हो (भवेत् )। भर = भरौ = पूरौ। भादउ = भादव = भाद्रपद, बरसात का महौना। गंगा गङ्गा नदी। लहर = लहर = तरङ्ग । देव = देता है दत्ते । समादू = ममाता है = समाति । अंगा = = पड गई। अथाह = अस्थल = अतल = अगाध। हउँ = अहम् = में । उदधि- = गम्भौर = गहरा। तहि = तिम से= तिम कारण से। चितवउँ= चेत- यामि = देखती है। चारि-= चारो। दिसि = दिशा। को = कः = कौन। गहि = ग्टहीत्वा = पकड कर । लावद = लावे = ले आवे । तौर = तट = किनारा ॥ (पद्मावती कहती है, कि) हे धाई सिंह मार कर, खा जाता तो अच्छा होता, अथवा जैसी लडकपन-में थी वैमी हो (अब भी) रहती तो भी अच्छा ॥ सुना था, कि जवानी नया वसन्त-ऋतु का वन है, सो उस वन में मद से मस्त (विरह-रूपौ) हाथी (श्रा कर) पड गया अर्थात् डेरा ले लिया ॥ सो अब (दूस) जवानी-वाटिका को कौन रख सकता है, (क्योंकि) विरह-हाथी ( हर एक) (अङ्ग-रूपी) शाखाओं को नाश कर रहा है ॥ मैं जानती थी, कि जवानी (अच्छे) रम-भोग (का समय ) है, (पर अब समझो, कि पति के ) वियोग से जवानी कठिन सन्ताप है ॥ जवानी भारी अटल पहाड है, जवानी का भार नहीं सहा जाता ॥ जवानी के ऐसा कोई मद-मत्त नहीं है, यह (जवानी) हाथी (तभो) (नौचे की ओर ) अँकता है यदि अङ्कुश हो । जवानी भादव को भरी जैसी गङ्गा लहर मारती है, तेसो (दूस देह में लहर मार रही है), अङ्ग में समाती नहीं (बाहर उमगी चाहती है) ॥ हे धाई में गहरे जवानौ-समुद्र के अथाह (जल ) में पड़ गई हूँ तिसौ कारण चारो दिशा देख रही हूं, कि कौन पकड कर, मुझे किनारे ले श्रावे ॥ १७३ ॥ चउपाई। पदुमावति तूं समुद सयानौ। तोहि सरि समुद न पूजइ रानौ ॥ नदी समाहिँ समुद मँह आई। समुद डोलि कहु कहाँ समाई ॥ अब-हौं कवल-करी हिअ तोरा। अइहइ भवर जो तो कह जोरा॥ ॥