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१७२] सुधाकर-चन्द्रिका। ३८१ किया (डुकृञ् - =कह। बाता= जम - 1 फूलौ = (फुल्ल विकसने से फुलति का भूत-काल)। कवॅल = कमल । भवर = भ्रमर । उह-ई = वही = स एव । पावद् = पावे (प्र उपमर्ग, श्राप व्याप्तौ से बना )। मिलाद् = मेलयित्वा = मिला कर । तन = तनु = देह । तपनि = तापन = ताप = जलन । बुझावद - (बुन्ध-निशामने बन्ध्यते से)। अनल = आग । अस एतादृश = ऐमा। सरौरा = शरीर । हिश्र = हृदय । पिअर = पौत = पौला। पेम = प्रेम । पौरा = पीडा। चहद् = चाहता है (चदते वा इच्छति से )। दरस = दर्शन । रवि = सूर्य। कीन्ह = करणे)। बिगासू = विकाश = प्रकाश। अकार= श्राकाश श्रासमान। पूँछद = पूछती है (पृच्छति)। धादू = धात्री =धाई = दाई। बारि = बाले = हे बेटी। कई = कथय वार्ता बात। तुई = त्वम् = । यादृक् = यथा = जैसे कवल-कलौ = कमल-कलौ। रंग: राता = रक्त = लाल। केसर = केशर = एक सुगन्ध-पुष्य । बरन = वर्ण। हिश्रा हृदय । भा= हुआ (बभूव )। तोरा = तेरा (तव)। मानहुँ = मन्ये = मानौँ। मनहिँ = मन में। भण्उ = भया (बभूव )। किछु = किञ्चित् । भोरा = भ्रम = संशय =शक ॥ पवन = वायु = हवा । पावद् = पाता है (प्राप्नोति) । संचरद = सञ्चलनम् = भीतर धमना । बईठ ==बैठता है (उपविशति)। कुरंगिनि = कुरङ्गी हरिणै। कम = -कैसा = कथम् । सिंघ = सिंह । डीठ = दृष्टवान् = देखा ॥ पद्मावती विरह-वन में पड़ गई, (उम में से निकल नहीं सकती) जानों (किसी से) घिर गई हो, जहाँ तक (आँख उठा कर, उस ने) देखा (तहाँ तक) अगम और असूझ ही जान पड़ा || चारो दिशा की ओर (दस प्रकार से) ताक रही है जानों (राह) भूल गई हो, जहाँ पर मालती (पति को शोभा ) फूली है वह कौन वन है (दूस का पता नहीं मिलता) | जिस वन में कमल है उस वन को तो भ्रमर पा जाता है ( पर इस के पति को) कौन मिला कर इस के देह की जलन को बुझावे ॥ कमल-शरीर में अङ्ग अङ्ग भाग ऐसी लग गई है, पति के प्रेम कौ पौडा से हृदय पौला हो गया । रवि (पति) ने प्रकाश किया (दूस लिये पद्मावती) चाहती है, कि (उस रवि अर्थात् पति का) दर्शन हो; भ्रमर को दृष्टि में कमल श्राकाश में है अर्थात् पद्मावती-भ्रमर ने देखा कि पति-कमल श्राकाश में छिपा हुआ है ॥ (सवेरा होने पर) धाई ने पूछा, कि बेटौ इस बात को तो कहो, कि क्या है क्योंकि दूं ऐसी लाल रंग की थी जैसी कमल कौ कलौ ॥ सो (आज) तेरा हृदय केभर के रंग (ऐसा पौला हो गया) है, मानों तेरे मन में कुछ भ्रम हो गया हो।