३८० पदुमावति । १८ । वियोग-खंड । [१७१ - १७२ गया दूस लिये चाँद के ठहर जाने से रात और बढी ॥ (यह कठिनता देख ) फिर धन्या पद्मावती सिंह को मूर्ति लिखने लगौ, (कि इसे देख कर चन्द्र-वाहन हरिण चन्द्र को ले कर भागे जिस में तुरन्त रात बीते), पद्मावती दूम प्रकार की पौडा से सब रात जागौ ॥ (और मन में विलाप किया करती, कि) हे कमल-रस के लेनेवाले भ्रमर (कान्त ) कहाँ हो, ( क्यों नहौं) चक्र या कबूतर हो कर, श्रा कर (दूस सेज पर) पडते हो ॥ वह धन्या पद्मावती विरह-आग की फतिंगा हो गई, तिम विरह के दीप (दीये) में जला चाहती है। भृङ्ग रूप हो कर कान्त नहीं पाता है (जो कि अपने हो ऐसा कर अपने साथ में ले)। ( फिर) कौन देह में चन्दन पोते (जिस से देह ठंढौ हो जाय) ॥ १०१ ॥ चउपाई। परी बिरह-बन जानहुँ घेरी। अगम असूझ जहाँ लगि हेरौ॥ चतुर दिसा चितवइ जनु भूलो। सो बन कवन जो मालति फूलौ ॥ कवल भवर उह-ई बन पावइ। को मिलाइ तन-तपनि बुझावइ ॥ अंग अनल अस कवल सरौरा। हिअ भा पिअर पेम कई पौरा॥ चहइ दरस रबि कौन्ह बिगास्त्र। भवर दिसिटि मँह कवल अकास्त्र ॥ पूँछइ धाइ बारि कहु बाता। तुइँ जस कवल-कलो रँग राता ॥ केसर बरन हिआ भा तोरा। मानहुँ मनहिँ भएउ किछु भोरा ॥ दोहा । पवन न पावइ संचरइ भवर न तहाँ बईठ । भूलि कुरंगिनि कस भाउ मनहुँ सिंघ तुइँ डौठ ॥ १७२ ॥ बिरह = विरह = जुदाई। बन = वन = जङ्गल । जानहुँ =जाने =जानों = यथा । घेरौ = घिरी= घिर गई = ग्टहीत हुई। अगम = अगम्य = जाने लायक नहौं । असूझ सूझने लायक नहीं । जहाँ = यावत् = यत्र । लगि = लगित्वा लग कर। हेरी श्राहरण किया = ढूंढा, वा देखा ( हेड गतौ से यहाँ गति = प्राप्त ) । चतुर = चत्वारि चारो। दिमा = दिशा । चितवद् = चेतयति = देखती है। जनु = जानहुँ = जानौँ । भूली = भूल गई = भ्रम में पड़ गई। कवन = क्व नु = कौन। मालति = मालती = एक फूल ।
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