यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१११] सुधाकर-चन्द्रिका। ३०८ = कोउ= कोऽपि = कोई। लावा = लगाया (लग मंलग्ने का भूत काल)। डहदू = दहद (दहति) जलाता है। चाँद = चन्द्र । चौरू = चौर = कपडा। दगध =दग्ध= भस्म । कर = करोति = करता है। तन =तनु = शरीर देह। गंभीरू = गम्भौर = गहिरा। कलप = कल्प = चारो युग का एक हजार वार बीत जाना। बाढी = बढद् (वर्धते ) का भूत- काल । जुग= युग = महा-युग = चारो युग का योग। पर-गाढी = प्र-गाढ = बहुत कठिन। बौन = वीणा = एक बाजा। मकु = मैं ने कहा, यहाँ कदाचित् जिम में । बिहाई = बीते। समि-बाहन =' शशि-वाहन चन्द्र की सवारी हरिण। तब = तदा। रहद् = रहता है (रह त्यागे का वर्तमान-काल) श्रीनाई = अवनम्य = उनय कर झुक कर। पुनि = पुनः = फिर। धनि= धन्या ( पद्मावती)। सिंघ = सिंह । उरेहदू- उल्लेखन = लिखने । लागद = लगति लगती है। अदमी = एतादृशी = ऐमौ। बिथा = व्यथा = पौडा = तकलीफ। जाग = जागती है (जागर्त्ति)। कहाँ = क ह = कुत्र । भवर : भ्रमर। कवल-रस-कमल-रस • कमल का रस । लेवा लेनेवाला (लाति से बना हुश्रा)। श्राद् = एत्य = आ कर । परड पडो (पततु)। होर = भूत्वा हो कर । घिरिनि= घिनौ= चक्र । परेवा = पारावत = कबूतर पतंग = पतङ्ग = कौट = कौडा। भदू = भई (बभूव )। जरा = जलना= ज्वलनम् । चहद् =(चदते वा इच्छति) चाहती है। दीप = दीया = चिराग । कंत = कान्त पाउ= आयाति पाता है। भिरिंग = भृङ्ग= कौट विशेष जो और कौडों को भी अपने ही ऐसा बना लेता है। लोप = लोपे (लिपि धातु का लिङ् लकार का रूप) ॥ तिम राजा रत्नसेन के योग (लेने) से पद्मावती को संयोग हुआ, अर्थात् राजा के योग-प्रभाव से पद्मावती को स्वप्न में राजा से भेंट हो गई, पद्मावती (जागने पर) प्रेम के वश हो गई, राजा की जुदाई ने पद्मावती को पकड लिया ॥ रात को जो रत्नसेन श्राया उस से नौंद नहीं पडती (दूधर उधर तडपा करती है) जानौँ किसी ने पलँग में केवाँच लगा दिया हो ॥ चन्द्रमा और चन्दन से बासे कपडे भी पद्मावती को जलाते हैं और पति का गहिरा विरह (जुदाइ) शरीर को भस्म करता है ॥ तिम पद्मावती के लिये रात कल्प के बराबर बढ गई, तिल, तिल जो रात सो युग युग के ऐसी बहुत ही कठिन हो गई ॥ (विचार कर, कि) कदाचित् रात कट जाय (दूम लिये पद्मावती ने) बौन को (बजाने के लिये) लिया, (उम की आवाज सुन कर) चन्द्र- वाहन हरिण झुक कर, रह गया अर्थात् वीणा के सुर से मोहित हो झुक कर ठहर पति। =