१७०] सुधाकर-चन्द्रिका। ३७७ ( व्यर्थ कहने का यह भाव है, कि ध्यान तो सर्वात्मना पद्मावती-हो की ओर है, परन्तु मेरा यह भेद लोगों पर न खुले, दूम लिये जाहिरा साँझ सबेरे किंगरौ, और सिंगो को बजाया करता है) ॥ ( पद्मावती के विरहानल से ऐसौ राजा को शरीर तप्त हो गई है, कि उस तपन से (ऐमौ) गुदरी जरती है, जानौँ (उस गुदरी में) श्राग लगाई गई हो। (कवि कहता है, कि सच है) बरता विरह(-अनल ) का धंधोर नहीं बुझता ॥ रात में ( पद्मावती के) मार्ग में, अर्थात् ध्यान में जागने से नयन लाल (लाल) हो गए हैं, (उन को ऐसौ शोभा है) जानौँ चकोर चकित हो कर, चन्द्रमा में लगा है (जिस के कारण नयन लाल हो गए हैं। राजा को चकित चकोर, और पद्मावती को प्राशि समझो) वा, जानाँ खेलौने का चकोर चन्द्रमा में लगा हो (जिस से पलक नहीं भजतो, टकटकी लग गई है) ॥ (राजा ने) कुण्डल को पकडे शिर को भूमि में लगाया, अर्थात् कानों को मुद्रा को हाथों से पकडे शिर को जमौन में रगडता है, (अपराध-क्षमा कराने के लिये कानों की मुद्रा को, अर्थात् कानों को हाथों से पकडे, शिर रगडता है), (और मन में यही कहता है, कि ) जहाँ उस ( पद्मावती) का पैर हो, (वहाँ उन पैरों को मैं) पनही होऊँ ॥ जिस पथ से ( पद्मावती) आवे ( उस पथ को) जटा छोर कर (अपने ) केशों से बाहारूँ, अर्थात् झारूँ, और तहाँ, अर्थात् तिम मार्ग में (पद्मावती के निमित्त अपने ) शिर को वारूँ, अर्थात् काट कर बलि दूँ ॥ (राजा का ) मन चारो ओर ( पद्मावती के लिये) चक्कर के ऐमा घूमता है, एक दण्ड (भौ) मार कर, अर्थात् पद्मावती के ध्यान को बिसार कर, स्थिर नहीं रहता। (राजा यही चाहता है, कि) जहाँ प्राण का अाधार ( पद्मावती) है, (तहाँ ) भस्म हो कर, अर्थात् शरीर को राख कर, पवन के संग पहुँचूँ, वा धाऊँ, यह अध्याहृत है ॥ १७० ॥ इति मण्डप-गमन-खण्ड-नाम सप्तदश-खण्डं समाप्तम् ॥ १७ ॥ 48
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