१७०] सुधाकर-चन्द्रिका। ३७५ गहे बजावइ किंगरी झूरौ। भोर साँझ सिंगौ निति पूरौ ॥ कंथा जरइ आगि जनु लाई। बिरह धंधोर जरत न बुझाई ॥ नयन रात निसि मारग जागे। चक्रित चकोर जानु ससि लागे ॥ सौस भुइँ लावा। पावरि होउँ जहाँ ओहि पावा ॥ जटा छोरि कई बार बोहारउँ। जेहि पँथ आउ सौस तहँ वारउँ ॥ कुंडल गहे दोहा। चारि-हु चकर फिरइ मन ( खोजत) डॅड न रहइ थिर मा होइ कइ भसम पवन सँग (धावउँ) जहाँ परान अधार ॥ १७० ॥ इति मंडप-गवन-खंड ॥ १७ ॥ = बठि=उपविश्य = बैठ कर । सिंघ-छाला सिंह-चैल = सिंह-छल्लो (चर्म) व्याघ्राम्बर = बघंबर =सिंह के चाम का श्रासन । तपा= = तपस्वी। जपा =जप (जपति) का पुंलिङ्ग में भूत-काल का एक-वचन । दिमिटि = दृष्टि । समाधि = चित्त और मन को एकाग्र कर, जगत् के सब वस्तुओं से हटा कर, केवल पर-ब्रह्म का ध्यान करता प्राण को ब्रह्माण्ड पर चढा लेना, जिस से श्वास तक बंद हो जाती है, देखने-वाले समझते हैं कि विना प्राण को शरीर है। भारतवर्ष में दूस का बहुत प्रचार था, लाहोर के महाराज रणजीतसिंह के समय में भी एक हरिदास नामक योगी ने महाराज और उन के दरबार में स्थित बडे बडे प्रतिष्ठित साहिबाँ के आगे प्राण को ब्रह्माण्ड में चढा लिया था। महाराज ने उस को शरीर को संदूक में बंद कर, ताले पर अपनी मोहर लगा, जमीन में गडवा, ऊपर जौ बोत्रा दिया और उस स्थान के ऊपर जंगी सिपाहियों का पहरा कर दिया। चालीस दिन के बाद निकालने पर बाबा को शरीर विना जीव के मालूम होती थी, परन्तु चेलाँ के उपाय से बाबा हरिदास जी राम राम कहते उठ बैठे (बाबू बालमुकुन्द सङ्कलित हरिदास देखो) अब भारतवर्ष में दूस क्रिया का देखाने-वाला नहीं देखने में आता। लागौ = लगडू (लगति) का स्त्री-लिङ्ग में भूत-काल का एक-वचन। दरसन = दर्शन । कारन = कारण । बदूरागी = वैरागी = विरागौ। किंगरौ = किं-करी= छोटौ सारंगौ = चिकारी जो योगी लिये बजाया करते हैं। गहे = ग्रहण किये = लिये। झूरी = झूठ-हौ = जुष्ट = व्यर्थ ।
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