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३०४ पदुमावति । १७ । मंडप-गवन-खंड । [• ६६ - १७० - अनुपम रस की प्राप्ति होती है। श्रथवा (जैसे ) मदन (मोम ) के घर में, अर्थात् मधु-मकही के छत्ते में मधु-अम्मत और बरै दोनों बमते हैं। यदि उचित-रौति से यत्न करो तो मधु-अमृत को पावो, और यदि अनुचित व्यवहार करो तो वसा, अर्थात् वरै मदृष्ण मधु-मक्खियों के डंक का विष लेवो ॥ असत् (निसत ) पुरुष यदि दौड कर (विरहा- नल में) मरे तो क्या ? अर्थात् कुछ नहीं, व्यर्थ है। बहुत से असत् कौट पतङ्ग प्रत्यह दीप-शिखा में भस्म हुआ करते हैं। ऐसे-ही असत् पुरुष यदि विरहाग्नि में भस्म हो, तो हो जाय, उस की इच्छा-पूर्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह उस विरहानल में कुत्सित व्यवहार (विषय-वासना) से प्रवृत्त हुआ है। (और) यदि ( कोई ) सत्, अर्थात् सच्चा व्यवहार करे (तो) बैठ कर लाभ हो, अर्थात् एक श्रासन जमाये रखने-ही से उस को अपने मनोरथ की प्राप्ति होती है। यदि (कोई) एक वार भी मन दे कर, अर्थात् सच्चे मन से (अपने प्रेमी के मिलने के मनोरथ से देवता की) सेवा किया, (तो उस ) सेवा-हौ के फल से देवता प्रसन्न हो जाता है ॥ (श्राकाश-वाणो कहती है, कि इस ) मण्डप के झणत्-कार शब्द को सुन कर, श्रा कर, पूर्व द्वार पर (श्रासन जमा कर ) बैठो ॥ जितना अंटे, अर्थात् जितना पर्याप्त हो, उतना भस्म शरीर पर चढा कर, मट्टी हो जाव, अर्थात् अपनी शरीर को मट्टी कर दो, जो कि अन्त में (सड, गल, भस्म हो कर,) मट्टो-हो होने वाली है। (कवि कहता है, कि) मट्टी कुछ मूल्य को नहीं लाभ करती है, अर्थात् दूस मट्टी का कुछ मोल नहीं, सेत में मिलती है। और मोल (भौ) सब (रुपया, पैमा, कौडी, अशर्फी इत्यादि) मट्टी-ही हैं, अर्थात् खान से उत्पन्न होने के कारण सब धातु और रत्न सच पूंछो तो मट्टी-ही हैं। सब पृथ्वी-ही के विकार हैं। दूस लिये यदि (जा) (प्राणौ अपनी) दृष्टि माटी से करे, अर्थात् जगत् के पदार्थमात्र को महो-हो समझ मट्टी-हौ से दृष्टि-संवन्ध रकवे, जो कुछ देखे उसे मट्टी-ही समझे, (तो) मट्टी, अर्थात् अपनी शरीर, अमूल्य हो जाय, अर्थात् समदर्शित्व गुण होने से उस को शरीर अमूल्य पर-ब्रह्म-रूप हो जाय ॥ १६६ ॥ चउपाई। बठि सिंघ-छाला होइ तपा। पदुमावति पदुमावति जपा॥ दिसिटि समाधि ओही सउँ लागौ। जेहि दरसन कारन बरागी ॥