३७२ पदुमावति । १७ । मंडप-गवन-खंड । [१६८ - १६६ ७ सेवा कर सकता हूँ, अर्थात् मेरे मैं न योग-वस्ल है न सेवा-वल है जिन से मैं आप को प्रसन्न कर सकूँ ॥ (मो) श्राप सब के ऊपर दयाल हो, अर्थात् सब के ऊपर दया करने- वाले हो। तुम्हें सेवा को श्राशा नहीं, अर्थात् श्राप को सेवा को इच्छा नहीं, कि जब कोई मेरी सेवा करे तो मैं फल देऊँ, दूम को श्राप को परवाह नहीं ॥ मेरे भौ गुण नहीं और न जिहा मैं रस की बात है, अर्थात् न मेरे में ऐसा गुण न मनो-हर वाणी, जिस से यह भरोसा हो, कि मैं अवश्य ही अपने गुण और मनो-हर वाणी से आप को रिझा लूंगा। श्राप दयालु हो, निर्गुणों को गुण देने-वाले हो ( हम ने यहाँ श्रादरार्थ सर्वत्र बहु-वचन का प्रयोग किया है, कवि ने देव को अद्वितीय समझ मर्वत्र 'तुद्' एक-वचन का प्रयोग किया है ) ॥ (मो हे महादेव, ) मेरी जो (पद्मावती के ) दर्शन की इच्छा है, (उसे ) पूरी कौजिये। मैं हर श्वास में, अर्थात् प्रति श्वासोच्छामान्तर्वौ काल में ( पद्मावती के) मार्ग को जोहता हूँ। प्रतिक्षण में यही प्रतीक्षा कर रहा हूँ, कि कब पद्मावती आवे और दर्शन हो ॥ जैसे विधि को श्राप की स्तुति है, अर्थात् श्राप जिस प्रकार की स्तुति के योग्य हैं, तिम प्रकार से विनय करना मैं नहीं जानता। (मो मेरे ऊपर ) सु-दृष्टि और कृपा करो (जिस में) मेरौ निश्चय से इच्छा पूरी हो ॥ १६८ ॥ चउपाई। कइ असतुति जउ बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप मँह आवा ॥ मानुस पेम भण्उ बइकुंठौ। नाहिँ त काह छार प्रक मुंठौ ॥ पेमहि माँह बिरह अउ रसा। मयन के घर मधु अंब्रित बसा ॥ निसत धाइ जउ मरह तो काहा। सत जउ करइ बइठि होइ लाहा ॥ एक बार जउ मन देइ सेवा। सेवहि फल परसन होइ देवा ॥ सुनि कइ सबद मँडप झनकारा। बइठहु आइ पुरुब के बारा ॥ पिंडु चढाइ छार जेत आँटौ। माटो होहु अंत जो माटौ ॥ दोहा। माटी मोल न किछु लहइ अउ माटी सब मोल। दिसिटि जो माटो सउँ करइ माटी होइ अमोल ॥ १६ ॥
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