३७० पदुमावति । १७ । मंडप-गवन-खंड । अथ मंडप-गवन-खंड ॥ १७ ॥
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चउपाई। राजा बाउर बिरह बिनोगी। चेला सहस तौस सँग जोगी ।। पदुमावति के दरसन आसा। दंडवत कौन्ह मँडप चहुँ पासा ॥ पुरुब बार होइ का सिर नावा। नावत सौस देव पहँ आवा ॥ नमो नमो नारायन देवा। का मोहिँ जोग सकउँ कइ सेवा ॥ तुइँ दयाल सब के उपराहौँ। सेवा केरि आस तोहि नाहौँ ॥ ना माहिँ गुन न जौभ रस-बाता। तुइँ दयाल गुन निरगुन दाता ॥ पुरवहु मोरि दरस कइ आसा। हउँ मारग जोअउँ हरि साँसा ॥ दोहा। - बाउर तेहि बिधि बिनय न जानउँ जैहि बिधि असतुति तोरि । करु सु-दिसिटि अउ किरिपा हौछा पूजइ मोरि ॥ १६८॥ वातुल = बौरहा। बिरह = विरह = वियोग। बिोगी = वियोगी, जिसे वियोग हो = वैरागौ। चेला = शिष्य । सहस सहस्र = हजार । तौस = त्रिंशत् । संग = साथ । जोगी योगी। दरमन = दर्शन = देखना। उम्मेद। दंडवत = दण्डवत् = दण्ड के ऐसा भूमि में गिर कर प्रणाम । मँडप = मण्डप । चहुँ = चारो। पास = पार्श्व = ओर । पुरुब = पूर्व दिशा । बार = द्वार = दरवाजा। त्रासा= त्राभा दूच्छा =