१६६ - १६७] सुधाकर-चन्द्रिका। (जैसे इन्द्र के लिये दधीचि ने अपनी हड्डी दे कर, अपना प्राण गवाँया, जिस से आज तक सर्वत्र उम का यश छाया है, और इन्द्र भी उस का वज्र, असाधारण समझ, बडे श्रादर से आज तक धारण किये हैं)॥ जिस को उच्च पर चाह रहती है, अर्थात् जिस को यह इच्छा रहती है, कि मेरी प्रतिष्ठा और यश हो, वह दिन दिन ऊँचा, अर्थात् बढता (प्रतिष्ठा पाता) जाता है। ऊँचे चढने में, अर्थात् प्रतिष्ठा पाने के यत्न में, वा हाथी घोडे के चढने में, यदि (दैवात् ) गिर पडे, (तो भी) कभी उच्च (प्रतिष्ठा-यत्न वा हाथी, घोडा, इत्यादि उच्च यान) को न छोडना चाहिए। क्योंकि जो घोडे पर चढता है, वही गिरता है, परन्तु गिर कर भी वह चढना नहीं छोडता, क्योंकि घोडे चढने से कितनी मान मर्यादा है, यह उसे अच्छी तरह मालूम है, इस लिये घोडे से गिर कर, मर जाना अच्छा, पर घोडे का न चढना नहौं अच्छा ॥ १६६ ॥ . अउ तह चउपाई। होरा-मनि देइ बचा कहानी। चलेउ जहाँ पदुमावति रानौ ॥ राजा चलेउ सर्वरि सो लता। परबत कह जो चलेउ परबता ॥ का परबत चढि देखइ राजा। ऊँच मँडप सोनइ सब साजा ॥ अंब्रित फल सब लागु अपूरौ। लागु सजौअनि मूरी॥ चउ-मुख मंडप चहूँ कैवारा। बइठे देवता चहूँ दुआरा ॥ भौतर मँडप चारि बँभ लागे। जिन्ह वेइ छुअइ पाप तिन्ह भागे ॥ संख घंट घन बाजहिँ सोई। अउ बहु होम जाप तहँ होई ॥ दोहा। महादेव कर मंडप जगत जातरा आउ। जस हौछा मन जेहि कइ सो तइसइ फल पाउ ॥ १६७ ॥ इति सिंघल-दीप-भाउ-खंड ॥ १६ ॥ हौरा-मनि= होरा-मणि, शुक । देव = दत्त्वा = दे कर । वचा = वचन। कहानी = कथनम् = वृत्तान्त । चलेउ = चलद (चलति) का भूत-काल में एक-वचन । पदुमावति =
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