२६० पदुमावति । १६ । सिंघल-दीप-भाउ-खंड । [१६४ - १६५ महादेव ने राम को प्रणाम नहीं किया, किन्तु, जिस श्राद्या शक्ति सौता को गढ (देह) ढूँढने में राम व्याकुल थे उस को सब से परे जान, उसी को ध्यान कर, प्रणाम किया । सो जिम गढ के आगे महादेव ने, (जो नाथ-संप्रदाय-वालों में प्रधान हैं, और श्रादि-नाथ कहलाते हैं) अपने माथ को धर दिया, (उस के पास पहुँचने में ), और कौन योगि-नाथ है ? अर्थात् और कोई नहीं है (महादेव के श्रादि-नाथ होने के विषय में पिछले दोहे की टीका में मत्स्येन्द्र-नाथ की कथा देखो)। कवि ने दून वर्णनों से देखलाया, कि जिस गढ (सिंहल वा ब्रह्माण्ड ) के पास, पवन, अग्नि, वायु, पञ्चतत्त्व-मय प्राणियों में सब से प्रतापी रावण, जिस ने वेदों के ऊपर व्याख्यान किया, और महादेव, जो योगि-राज हैं, नहीं पहुँच सकते, वह गढ अत्यन्त दुर्घट है, उस के पास पहुँचने की कोई नियत राह नहौँ । यदि गढ-पति (पद्मावती वा प्रकृति-रूपा चिच्छक्ति) प्रसन्न हो, तो चाहे जिस राह से, विना किसी के सलाह से, अपने पास बडे सुपास से बुला कर सुख से वास दे सकता है। अन्यथा कोई उपाय नहीं, कि प्राणी उस अनगढ गढ के पास जाय । सातवाँ कमल-चक्र जो ब्रह्माण्ड है, उसे गढ मानने से, और पिछले दोहे को टीका में ईडा, पिङ्गला आदि जो शशि, तारा-गण, रवि, विद्युत् इत्यादि मान आये हैं, वैसे-हौ यहाँ भी मान लेने से, और गढ-पति को प्रकृति अव्यक्त ब्रह्म समझ लेने से, सब वर्णन योग-पक्ष में लग जाता है। दूसो लिये प्रत्येक चौपाइयों की टीका में उचित स्थान पर कोष्ठकान्तः पद्मावती और प्रकृति इत्यादि संनिवेश कर दिया है, जिस में सहज में दोनों पक्षों के अर्थ समझे जायें ॥ १६ ४ ॥ चउपाई। तहाँ॥ तहाँ देखु पदुमावति रामा। भवर न जाइ न पंखो नामा ॥ अब सिधि एक देउँ तोहि जोगू। पहिलइ दरस होइ तउ भोगू ॥ कंचन मेरु देखावसि जहाँ। महादेव कर मंडप ओहि क खंड जस परबत मेरू। मेरु-हि लागि होइ अति फेरू॥ माघ मास पाछिल पख लागे। सिरी-पंचमी होइहि उघरिहि महादेव कर बारू। पूजइ जाइ संसारू॥ पदुमावति पुनि पूजा आवा। होइहि ओहि मिसु दिसिटि मैरावा ॥ आगे॥ सकल
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४६६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।