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सुधाकर-चन्द्रिका। ३४५ काय-व्यूह भरा अमृत-सुख धरा है, और 'सोऽहं सोऽहं' जिसे योगी कहते है उस हंस-स्वरूप पर-ब्रह्म का जहाँ अनाहत ध्वनि से पूरित नाना रत्नमय स्थान है, जाने में कुछ भी देरौ नहीं लगती। यहाँ यदि दून कमलों के स्थान में क्रम से खार, चौर, दधि, जलधि, सुरा, किलकिला और मानसर को मान लो, तो राजा (रत्न-सेन ) अब ध-मध्य-कमल (किलकिला) के ऊपर अपने प्राणों को चढा लाया। दूस लिये अब पद्मावती-रूप सच्चिदानन्द के परम-धाम ब्रह्माण्ड सिंहल में पहुँचना कुछ कठिन नहीं है। गुद से प्राण चढाने में स्थल-विशेषों में प्राण के आने से योगी दूस में नाना प्रकार का चमत्कार देखता है, जहाँ नाना प्रकार को हजारों मिद्धि, कर जोरे योगी के सामने सेवा के लिये खडी रहती हैं। परन्तु यदि भ्रमर के सदृश, योगी उन को माया में फंस कर उन्हों स्थानों में अपने प्राण को न अटकावे, और सिद्धियाँ की चटक मटक में न आवे, हिम्मत कर, मानसर (ब्रह्माण्ड = ब्रह्म-रध) तक चला जावे, तो अवश्य इस साहस के बदले ब्रह्म-रन-कमलान्तर्गत पर-ब्रह्म-पराग-रस को पावे, जिस से अजर अमर हो, जीवन्मुक्त कहलावे। अन्यथा घुन के ऐमा प्राण सूखौ काय-काठी में पडा उखौ काठी-हौ को खाता, काठी के साथ-ही नष्ट हो जाता है। दूस प्रकार के रूपक से समुद्र-यात्रा-वर्णन सब हठ-योग-पक्ष में लग जाता है। शरीरान्तर्गत चक्रों के विषय में अनेक मत हैं। देवी-भागवत, सप्तम-स्कन्ध, अध्याय ३५ में भी इन चक्रों का विशेष रूप से वर्णन है। कोई ऐसा भी कहते हैं। प्राधारे लिङ्गनाभौ प्रकटितहृदये तालुमूले ललाटे वे पत्रे षोडशारे दिदशदादले द्वादशार्द्ध चतुष्को । वामान्ते बालमध्ये डफ-कठ-सहिते कण्ठदेशे स्वराणां हं हं तत्त्वार्थयुक्तं सकलदलगतं वर्णरूपं नमामि ॥ आधार = गुद-कमल, ४ दल, व, पा, ष, स वर्णात्मक १ । लिङ्ग-कमल, ६ दल, ब, भ, म, य, र, ल वर्णात्मक २ । नाभौ-कमल, १० दल, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ वर्णात्मक। हृदय-कमल, १२ दल, क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ वर्णात्मक ४ । तानु-मूल = कण्ट-कमल, १६ दल, अ, श्रा, दू, ई, उ, ऊ, ऋ, ह, लु, ल्ड, ए, ऐ, ओ, औ, अं, श्रः वर्णात्मक ५ । ललाट-कमल, वर्णात्मक ६ । दूस के परे ब्रह्म-रध-कमल, जिस में हजार दल हैं ॥ १६१ ॥ इति सप्त-समुद्र-खण्ड-नाम पञ्चदश-खण्डं समाप्तम् ॥ १५ । 44