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३४४ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [१६१ . . ऐसौ शोभा है, जानों दन्त नहीं हैं, भौंरे दाँतों का रूप धारण कर विकशित मुख-कमल का रस लेते हैं। जब मुख-कमल बंद हो जाता है तब जानों वे दन्त-रूप भौंरे संपुटित हो जाते हैं, और हँसने पर मुख-कमल के प्रफुल्लित होने से देख पडने लगते हैं। मुख-कमल के पुराने अन्तरङ्ग मित्र दाँत हैं। अपरिचित को देख कर, यह मुख-कमल सङ्कोच से कदाचित् अपना शुद्ध-रस न पौने दे। दूस लिये भौंरे, कपट से दाँतों का रूप धारण कर, रस लेते हैं। यह कवि को अतिशयोक्ति है। ( उस मानसर में ) हंस हँसते हैं, अर्थात् प्रसन्न वदन हैं, और ( आपस में ) क्रीडा करते हैं। मोती, होरा (इत्यादि) रत्न को चुनते हैं, अर्थात् चुंग रहे हैं ॥ (कवि कहता है, कि) जो ऐसा तप (और) योग साध श्रावे, अर्थात् जैसा राजा कष्ट सह कर, तप और योग साधा; उसी प्रकार जो तप योग साधन करे, (तो उस की) आशा पूरी होती है, (और वह) इस भोग को मानता है, अर्थात् मन माना प्रेम रस का भोग करता है। भ्रमर जो मन से मानसर (मानस वा, मान्य-सर = उत्तम-तडाग) को लिया, अर्थात् हृदय से सब वासना बिसार कर, नाना प्रकार के क्लेशों को सह कर, जो उत्तम सर में पहुँचा, (तो उसी कट के बदले ) श्रा कर (अनुपम ) कमल का रस लिया, (लौन्ह' क्रिया का दोनो और अन्वय करना चाहिए)। (और) घुन जो साहस (हिाउ) न कर सका, तैसा सूखा काठ खाता है, अर्थात् श्रालस्य से, हिम्मत हार बैठ रहा। तिसौ के कारण उस को नौरस सूखा काठ खाना पड़ता कबीरदास ने भी कहा है, कि 'जो ढूंढा तिन पाइयाँ गहिरे पानी पैठि। वे बपुरी क्या पाइयाँ रहौँ किनारे बैठि ॥' हठ-योग के मत से गुद, लिङ्ग, नाभी, हृदय, कण्ठ, भ्र-मध्य और ब्रह्माण्ड दून स्थानों में शरीरान्तर्गत कमल हैं (बहुतों के मत से हृदय और कण्ठ में अभेद होने से छ-हौ कमल हैं), जिन में योगी को क्रम क्रम से प्राण चढाने में क्लेश होता है। अर्थात् गुद पर चढाने की अपेक्षा लिङ्ग-कमल पर चढाना कठिन । लिङ्ग-कमल पर चढाने की अपेक्षा नाभी-कमल पर चढाना कठिन । यौँ एक से एक कठिन हैं। सब से कठिन नौचे गुद से चढाते भू-मध्य-कमल में ले जाना है। यदि दूस कमल पर प्राण चढ गया तो ब्रह्माण्ड-कमल के मध्य जहाँ सच्चिदानन्द से - कर,