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१६१] सुधाकर-चन्द्रिका। ३४३ - भौरा। दसन E 1 श्रावे रहे। बिधि = विधि = ब्रह्मा । खोले = खोल (खोलति) का पुं-लिङ्ग में भूत-काल का बहु-वचन। कवल = कमल । बिगसि = विकशित हो कर। बिहँसी = बिहँस (विहमति) का स्त्री-लिङ्ग में भूत-काल का एक-वचन । देही = देह = शरीर। भवर - भ्रमर = दशन = दाँत। लेहो = लेड् ( (लाति) लेता है। वा,लेही = लेहि (लेढि ) चाटता है। हँसहि = हसदू (हमति ) का बहु-वचन । हंस = प्रसिद्ध जल-पक्षी, जो मोती होरा रत्न को चुंगता है। करहि = करडू (करोति) का बहु-वचन । किरौरा = किरौडा = क्रीडा = खेल कूद । चुनहि = चुनदू (चिनोति) का बहु-वचन । रतन रत्न = जवाहिर । मुकुताहलि = मुक्ताफल = मोती। होरा = होर= हौरक = वज्र। साधि = साधने = साधन करने। श्राव = श्रावद (आयाति) का लोट प्रथम-पुरुष का एक-वचन । तप= तपः = तपस्या । जोगू = योग । पूज ( पूर्यते) पूजता है = पूरा वा पूरी होती है। श्रास आशा = उम्मेद। मान = मान (मन्यते ) मानता है। भोगू = भोग ॥ मनसा = मन से मन कर के। मानसर= मानससर = मानस । घुन = घुण । हिआउ = हृदयाप्त हृदय से प्राप्ति = हृदय से चाह = हिम्मत । सका = सकइ ( शक्नोति ) का भूत-काल में एक-वचन । झूर = झौर्ण = सूखा । काठ = = तथा = तैसे । खाइ = (खादति) खाता है । (लोग ) सत समुद्र मान-सर में आये। सत्य-सङ्कल्प जो किये थे (दुस लिये इस ) साहस (कर्म) से सिद्धि को पाए, अर्थात् मनोरथ पूरा हुा । वा महस्र सिद्धि को पाये, अर्थात् एक पद्मावतौ (प्रकृति = पर-ब्रह्म) की खोज में नाना प्रकार के चमत्कारों को लोगों ने देखा ॥ शोभित मानसर के रूप को देख कर, (सब के) हृदय (सरोवर) में उल्लास (आनन्द) पुरनि (रूप) हो कर छा गया ॥ श्रन्धकार गया, अर्थात् अन्धकार दूर हो गया ; रात को स्याहौ, अर्थात् रात को कालिमा, छूट गई, अर्थात् किलकिला के भयङ्कर तरङ्गों के प्रभाव से जो सूर्य छिप कर महा अधिभारी और भयानक अँधेरी रात हो गई थी वह चली गई, सबेरा हो गया; रवि को किरण ( चारो श्रोर) छूटी॥ सब साथी 'एवमस्तु एवमस्तु' (अब ऐसा-हौ प्रकाश रहे, अब ऐसा-ही प्रकाश रहे) बोल उठे। (और लगे कहने, कि अभी तक ) जो अंधे थे सो ब्रह्मा ने (अब ) नयनों को खोल दिया ॥ तहाँ, अर्थात् उस मानसर में (हृदय) कमल विकशित हो कर, ( सब को) देह विहँस गई, अर्थात् प्रफुल्लित हो गई। भ्रमर दशन हो हो कर, रस लेता है, वा चाटता है, अर्थात् लोग खुश हो कर जो हँस रहे हैं, उस की काष्ठ । तम