९५६] सुधाकर-चन्द्रिका। ३३८ । - पाछद् = पीछे = पृष्ठ-भाग में। सँभारई = सँभारद् (सम्भारयति ) सँभारता है। आपुनि = अपना, वा, अपनी ॥ राजा ने कटक, अर्थात् सेना के लोगों को, ( चलने के लिये ) बौडा दिया, (और लोगों को समझाया, कि सब कोई ) सत्पुरुष, अर्थात् सत्य-प्रतिज्ञ होवो, (और) मन में धौरज करो, (समुद्र देख कर घबडावो मत) ॥ (कवि कहता है, कि) जिस ( सेना का) स्वामौ शूर होता है (चाहे वह खामी कोई हो), (तो उस की) सेना फिर आप-ही शूर हो जाती है। (कहावत है, कि विना दुलहे के बरात को शोभा नहीं ; इसी तरह जहाँ नेता बहादुर नहौँ, तहाँ सेना क्या बहादुरी करेगौ ) । जब तक हृदय से सती सत्य, अर्थात् पति के संग भस्म हो जाना दूस का सत्य-सङ्कल्प, नहीं बाँधती; तब तक कहार कंधा नहीं देता, अर्थात् तब तक जिस डोली पर वह बैठी है, उस को उठाने के लिये नहीं तयार होता ॥ (कवि का तात्पर्य है, कि जब तक प्रधान, दृढ चित्त से कमर कस, अपने काम पर नहीं उद्यत होता, तब तक साथी साथ नहीं देते ) ॥ (सो राजा ऐसे भयङ्कर समुद्र में निःशङ्क पार होने के लिये तयार है, क्योंकि राजा ने) प्रेम-समुद्र में नौका को बाँधा है, अर्थात् उस के पार होने के लिये तयार है, जिस (प्रेम-समुद्र ) के बूंद (के सदृश ) ये सब समुद्र हैं । (राजा होरा-मणि शुक से कहता है, कि ) मैं स्वर्ग का राज्य नहीं चाहता, (और) मुझे नरक से भी कुछ काम नहीं, अर्थात् में वर्ग और नरक दोनों को कुछ नहीं समझता ॥ ( केवल ) उस (पद्मावती) का दर्शन चाहता हूँ; जिस (पद्मावती) ने मुझे ( यहाँ तक) ला कर प्रेम की राह में लगाया है, अर्थात् यदि उस का दर्शन मुझे नरक मैं भौ मिले तो मैं उसी को अनुपम स्वर्ग समुझता हूँ ॥ (पिछले दोहे में शुक ने जो इस किलकिला समुद्र को भयङ्कर लौला राजा को सुनाई ; उस पर शुक से राजा कहता है, कि) काठ के लिये क्या कठिन (और) ढौला, अर्थात् जो विरह ताप से सूखे सखुए के काठ के सदृश है, उस के लिये भयङ्कर और सुख-कर दोनों समान हैं । क्यों कि वह सूखा काठ) न समुद्र में डूबता है (और) न ( उसे) मगर लोलते हैं, अर्थात् सब कोई उसे बे-काम समझ उस पर दृष्टि-ही नहीं रखते ॥ (राजा ऐसा कह कर, झट पतवार को) पकड कर, धस कर, समुद्र को लिया, अर्थात् आप-हौ अगुवा हो कर अपने जहाज को समुद्र में चलाया । (राजा को आगे देखते-हौ) सब कोई (राजा के ) पौछे हुए, अर्थात् सब किसी ने अपने अपने जहाजों 1
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