३३४ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [१५७ ( सोई ) नौर, अर्थात् वही लहर का पानी य-पुञ्ज (श्रावर्त्त के वेग से) नौचे ऊपर होता है। (उस के कारण जान पडता है) जैसे समुद्र में महा-वेग होता हो, अथवा महा-वेग से समुद्र का यश होता हो, अर्थात् चारो ओर से यशो-गान को घोर- ध्वनि होती हो ॥ देखने से, वा तर्क करने से, (जान पडता है, कि) लाख (लख ) योजन तक (आवर्त से) पानी घूमता है, जैसे (कि) कोहार का चाक फिरता है ॥ ( ऐसा समुद्र) जैसे-ही नियराना (तेसे-हौ) प्रलय हो गया, अर्थात् लोगों ने यही समझा, कि अब प्रलय श्रा गया, दूस में कोई न बचेगा। (प्रलय में तो सब का नाश हो जाता है) इस में यदि मरेगे भी तो राजा और राज-कुर-हौ मरेंगे । फिर दूस का नाम कवि ने प्रलय कैसे कहा। इस आशङ्का पर कवि कहता है, कि) ( जो) मरता है तिस के लिये त्योहौं, अर्थात् मरण-क्षण-ही में वह (सो) प्रलय है, अर्थात् जिस दिन जो मर जाता है, उस के लिये जानाँ प्रलय हो गया । कहावत है, कि 'श्राप डूबा जग डूबा' । प्रलय पुराणों में चार प्रकार का है, दैनं-दिन प्रलय १, जो कि प्राणियों के मरने से प्रतिदिन हुआ करता है। ब्राह्म-लय २, ब्रह्मा को रात्रि श्रा जाने से ; दूस प्रलय में सब जीवों को अपने उदर में ले कर, ब्रह्मा सो जाता है। प्राकृतिक प्रलय ३, इस में ब्रह्मा इत्यादि सब का नाश हो जाता है, सब प्रकृति के अन्तर्गत हो जाते हैं। आत्यन्तिक प्रलय ४, उस योगी का होता है, जो समाधि लगा कर, पाप-पुण्य को ज्ञानाग्नि से भस्म कर, पर-ब्रह्म में लीन हो जाता है । भास्कराचार्य ने अपने गोलाध्याय के भुवन-कोश में लिखा है, कि-- दिने दिने यन्मियते हि भूतैर्दैनंदिनं तं प्रलयं वदन्ति । ब्राह्मं लयं ब्रह्म अ-दिनान्तकाले भूतानि यद्ब्रह्मतनुं विशन्ति ॥ ब्रह्मात्यये यत् प्रकृति प्रयान्ति भूतान्यतः प्राकृतिक कृतौन्द्राः । लोनान्यतः कर्मपुटान्तरत्वात् पृथक क्रियन्ते प्रकृतेर्विकारैः ज्ञानाग्निदग्धा खिल पुण्यपापा मनः समाधाय हरौ परेशे । यद्योगिनो यान्यनिवृत्तिमस्मादात्यन्तिकं चेति लयश्चतुर्धा ॥ (भास्कर के लिये गणकतरङ्गिणी देखो) दूस तरह प्रलयों में चार भेद होने से स्पष्ट होता है, कि कवि ने 'मरदू मा ता कह परलउ तउ-हौँ' । दस से दैनंदिन प्रलय को लिया है ॥ ('सकल समुद जानउँ भा ठाढा' ऐसी) समुद्र की बाढ देख कर सब का धैर्य गया, ॥
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