१५७] सुधाकर-चन्द्रिका। ३३३ र =लाभ त्राया= हिल-लोल = दूधर से उधर पानियों का चञ्चल होना। अकास = आकाश = श्रासमान । टूटद् = (त्रुश्यति ) टूटता है। चहुँ = चारो । श्रोर अपर-प्रान्त = किनारा। उड = (उड्डीयते ) उडता है, उडती है। लहरि = लहरी, वा लहर = तरङ्ग । परबत = पर्वत पहाड । नाई = निभ = सदृश । फिर = (स्फरति) फिरता है। जोजन = योजन, ( चार क्रोश का एक योजन होता है)। लख = लक्ष = लाख । ताई = तक = तदन्त । धरती = धरित्री पृथ्वी । लेत = लेता हुश्रा । सरग= खर्ग = आकाश । लहि कर, वा लहि = लगि = लग कर = तक। बाढा = बढदू (वर्द्धते )। ठाढ = ठढा = खडा उत्थित । नौर =जल । तर = तल = नीचे। ऊपर = उपरि । महा-अरंभ = महारम्भ = महावेग महात्वरा (प्रारम्भः सम्भमस्वरा, अमरकोश, ३ काण्ड, सङ्कीर्ण-वर्ग ) । जस = यथा = जैसे, वा जस = यश = यशो-गान । ताका = ताकने से = देखने से = तर्कतः तर्क से । जइस = जैसे = यथा । कान्हार = कुहार, वा कोहार कुलाल । क= का। चाका = चक्र = चाक । परलउ= प्रलय = परलय। निअराना = निकट हुआ = निकट नगिचाना । (जैसे भूख से भुखाना, लालच से ललचाना, घाबड से घबडाना इत्यादि) । जउ-हौं = ज्यों-ही = जैसे-हो । मरद = (मरति) मरता है। तउ-हौं त्यों-ही =तैसे-हो ॥ गद = गई = स्त्री-लिङ्ग में भूत-काल का एक-वचन, इसी का पुं-लिङ्ग में रूप 'गा' होता है। अउसान = अवशान्ति = स्थिरता । बाढि वर्धनम् । निअर = निकट । होत = होते । लोल (निगिलति) = लोलता है निगलता है। काढि = काढ कर = निकाल कर = निः काश्य । (लोग) फिर किलकिला समुद्र में श्राए, (समुद्र को) देखते-हौ (लोगों का) धौरज (चला ) गया, (ौर ) डर खाए, अर्थात् डर गये ॥ (उस समुद्र में ) किलकिल ऐसा (शब्द) हुआ, अर्थात् होता है, (और) हलोर उठता है। ( उस हलोर में अररर ऐसा शब्द होता है)। जानौँ चारो ओर से अाकाश टूट रहा है ॥ लहर पर्वत के ऐसी उडती है, अर्थात् लहर में समुद्र से अलग पहाड के ऐसा बडे ऊँचे तक जल-पुञ्ज उड जाता है। (और वह लहर) लाख योजन तक हो कर फिरती है, अर्थात् लाख लाख योजन तक लहर में पानी उठ जाता है तब वहाँ से फिरता है । (जिस घडी पानी ऊपर को उठता है उस बेरा समुद्र) धरती लेते वर्ग तक बढ जाता है । ( उस समय जान पडता है, कि ) सर्वत्र (सकल-स्थान ) जानौँ समुद्र (हौ) खडा हुआ है, अर्थात् भूमि से आकाश तक समुद्र-ही समुद्र देख पडता है ॥ वही बाढ =
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