१५५-१५६ ] सुधाकर चन्द्रिका। ३२८ प्रेम-मय प्रियतम (वा पर-ब्रह्म) का माहात्म्य-ही न होता ॥ (सो) अरे (भाई) तिमी समुद्र में (जहाँ धरती सरग जर तहि झारा), (उस विरहानल के बल से ) राजा (निःसंशय पार जाने के लिये) पडा, (और) उस में जरा चाहता है, परन्तु (उस विरहानल के प्रभाव से राजा का) रोम भी न जरा ॥ जैसे कराई में तेल खौलता है (तलफडू), तैसे-हौ (इस समुद्र का ) जल खौलता है। (परन्तु राजा ), जो प्रेम का मलयाचल है, (तिम के ) समौर (हवा) से समुद्र विध गया, अर्थात् मलय-खरूप राजा के अङ्ग से मिल कर जो हवा समुद्र में लगी उस के कारण समुद्र भी सुगन्धित और शीतल हो गया। मलयाचल का धर्म है, कि अपने भीतर तो गन्धक इत्यादि द्रव्य और विष-धर सादिकों के कारण जला करता है, और बाहर ऐसा सुगन्धित और शीतल रहता है, कि उस की हवा जिस को लगे वह सुगन्धित और भौतल हो जाय। इसी प्रकार, राजा विरहानल से तो भीतर दग्ध हो रहा है, परन्तु ऊपर योगियों के सदृश, ऐसी शान्त, सुगन्धित और शीतल काया को बनाये है, कि उस की हवा समुद्र में लग जाने से, अग्नि-मय समुद्र भी सुगन्धित और शीतल हो गया। यह कवि का गम्भीराशय है, और दूस से राजा में विरहानल-दग्धत्व और मलयाचल-शीतलत्व ये दोनों धर्म आ जाने से पूर्णापमा हुई। (इस प्रकार समुद्र के ठंढे हो जाने से लोग सहज में इस समुद्र को भी पार कर गये ; यह अध्याहार है ) ॥ ॥ १५५ ॥ चउपाई। सुरा समुद मँह राजा आवा। महुआ मद-छाता देखरावा॥ जो तेहि पिअइ सो भावरि लेई। सीस फिरइ पँथ पइगु न देई ॥ पेम-सुरा जेहि के जिअ माँहा। कित बइठइ महुश्रा की छाँहा ॥ गुरु के पास दाख रस रसा। बदरी बबुर मारि मन कसा ॥ बिरहइ दगधि कीन्ह तन भाठी। हाड जराइ दीन्ह जस काठी ॥ नयन नीर सउँ पोती किया। तस मद चुत्रा बरा जउँ दिशा ॥ बिरह सुरागनि पूँजइ माँस्। गिरि गिरि परहि रकत कइ आँस्त्र ॥ 42
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